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________________ आचार्य पदस्थापना विधि का शास्त्रीय स्वरूप...167 निष्पत्ति – उपरोक्त विवेचन से सुस्पष्ट होता है कि आचार्य में गुणों की अधिकता होने के कारण उनके लिए आपवादिक कई नियम अतिशय रूप हो जाते हैं जिसका सेवन करने से उन्हें किसी तरह का दोष नहीं लगता, प्रत्युत पद के अनुरूप उनकी महिमा प्रसरित होती है। उक्त अतिशयों का उल्लेख आगम एवं आगमिक व्याख्या साहित्य में ही देखा जाता है। इससे परवर्ती साहित्य में इसकी चर्चा लगभग नहीं है। आचार्य और उपाध्याय के गण निर्गमन के कारण स्थानांगसूत्र में आचार्य और उपाध्याय के द्वारा गण से बाहर निर्गमन करने के पांच कारण उल्लिखित हैं 63_ ____ 1. आचार्य और उपाध्याय गण के प्रधान होते हैं। संघ या गण का सम्यक संचालन करना उनका मुख्य कर्त्तव्य है। किन्तु जब वे यह अनुभव करते हैं कि गण में मेरी आज्ञा या धारणा की अवहेलना हो रही है, तो वे गण छोड़कर चले जाते हैं। 2. यद्यपि आचार्य और उपाध्याय का गण में सर्वोपरि स्थान है तथापि प्रतिक्रमण और क्षमायाचना आदि के समय उनसे दीक्षा-पर्याय में ज्येष्ठ और विशिष्ट श्रुतज्ञानी मुनियों का विशेष सम्मान करना उनका दायित्व है। यदि वे अपने पद के गर्व से रत्नाधिकों एवं श्रुतज्ञानियों के प्रति वन्दन और विनय का सम्यक प्रयोग नहीं करते हैं तो गण में विग्रह खड़ा हो सकता है ऐसी स्थिति में उन्हें गण से निकाल देना चाहिए। 3. आचार्य और उपाध्याय जितने श्रुत को धारण करते हैं उनकी समयसमय पर गण को वाचना देना आवश्यक है। यदि वे स्वयं जानते हुए भी गणस्थ साधुओं को सूत्र, अर्थ या उभय की यथोचित वाचना नहीं दें तो गण में क्षोभ उत्पन्न हो जाता है और आचार्य या उपाध्याय पर पक्षपात का दोषारोपण होने लगता है। इस स्थिति में गण उनका परिहार कर देता है अथवा उन्हें गण का परिहार कर देना चाहिए। 4. आचार्य और उपाध्याय स्वगण की या परगण की साध्वी में आसक्त हो जाए तो इससे संघ की निन्दा होती है और स्वयं की प्रतिष्ठा गिरती है। इस स्थिति में आचार्य या उपाध्याय स्वयं ही गण से बाहर चले जाते हैं। 5. आचार्य और उपाध्याय के मित्र, ज्ञातिजन आदि किसी कारणवश गण
SR No.006244
Book TitlePadarohan Sambandhi Vidhiyo Ki Maulikta Adhunik Pariprekshya Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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