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158...पदारोहण सम्बन्धी विधि रहस्यों की मौलिकता आधुनिक परिप्रेक्ष्य में पद स्थापना के अनुसार आचार्य के दो भेद
आगमिक व्याख्याओं के अनुसार दो प्रकार के आचार्य होते हैं। द्विविध आचार्य की स्थापना भिन्न-भिन्न हेतुओं से की जाती है।42
1. इत्वरिक और 2. यावत्कथिक। 1. निरपेक्ष और 2. सापेक्षा
• इत्वरिक (अल्पकाल के लिए) आचार्य की स्थापना निम्न दो कारणों से की जाती है
जब आचार्य पद के योग्य कोई साधु न हो तथा किसी कारण से नूतन आचार्य बनाने से पहले ही पूर्व आचार्य कालधर्म को प्राप्त हो गये हों।
किसी भी गच्छ-समुदाय में आचार्य की उपस्थिति होना अनिवार्य है इसीलिए इत्वरिक आचार्य की स्थापना की जाती है। यदि इत्वरिक आचार्य की स्थापना न की जाये तो संघ विनष्ट की सम्भावना रहती है। उत्सर्गत: पूर्व आचार्य को अपने जीवनकाल में ही अन्य गणनायक की स्थापना कर देनी चाहिए। आज भी अनेक गच्छों में यह परम्परा प्रवर्तित है। इससे आचार्य के कालगत होने पर भी समुदाय खिन्न या छिन्न-भिन्न नहीं होता। इसके विपरीत जैसे नये राजा का अभिषेक किये बिना दिवंगत राजा की घोषणा से राज्य में क्षोभ उत्पन्न होता है, वैसे ही गच्छ में नये आचार्य की स्थापना किये बिना पूर्व आचार्य के कालगत होने की घोषणा से अनेक दोषों की संभावनाएँ रहती है। जैसे
• आचार्य के बिना हम अनाथ हो गये हैं, यह सोचकर कई मुनि अन्य गच्छ में जा सकते हैं।
• कई मुनि स्वच्छन्दाचारी बन सकते हैं। • कुछ मुनि आचार्य के अभाव में अन्यमनस्क हो सकते हैं। • कुछ निराश्रित लता की भांति परीषह आदि में असहिष्णु हो सकते हैं।
• कई मुनि आचार्य दिवंगत के सामाचार सुनकर, विशिष्ट ज्ञान आदि की प्राप्ति हेतु अन्य आचार्यों के समीप जा सकते हैं।
• कुछ मुनि सारणा आदि के अभाव में भी गच्छान्तर हो सकते हैं। क्रमश: गच्छ छिन्न-भिन्न होकर विनष्ट हो जाता है।43
उपर्युक्त दोषों के निवारणार्थ इत्वरिक आचार्य स्थापना का विधान है।