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आचार्य पदस्थापना विधि का शास्त्रीय स्वरूप...151 18.) पन्द्रह योग, पन्द्रह संज्ञा, तीन गारव, तीन शल्य के परित्यागी, ऐसे (15+15+3+3 = 36) गुणधारी हैं।
19.) सोलह उद्गम दोष, सोलह उत्पादना दोष, चार अभिग्रह के पालक एवं उपदेशक, ऐसे (16+16+4 = 36) गुणधारी हैं।
___20.) सोलह वचनविथि, सत्रह संयम, तीन विराधना के ज्ञाता, ऐसे (16+17+3 = 36) गुणधारी हैं।
21.) दीक्षा अयोग्य अठारह प्रकार के पुरुष एवं अठारह पापस्थान के ज्ञायक होने से (18+18 = 36) गुणधारी हैं।
__22.) अठारह शीलांग एवं अठारह प्रकार के ब्रह्मचर्य के उपदेष्टा होने से (18+18 = 36) गुणधारी हैं।
23.) कायोत्सर्ग के उन्नीस दोष एवं सत्रह प्रकार के मरण का स्वरूप जानने वाले होने से (19+17 = 36) गुणधारी हैं।
24.) बीस समाधिस्थान, दस एषणा दोष एवं पाँच ग्रासैषणा दोष के ज्ञाता होने से (20+10+6 = 36) गुणधारी हैं। ___ 25.) इक्कीस शबल दोष एवं पन्द्रह प्रकार की शिक्षा के ज्ञाता होने से (21-15 = 36) गुणधारी हैं।
26.) बाईस परीषह विजेता एवं चौदह आभ्यन्तर ग्रन्थि के ज्ञाता होने से (22+14 = 36) गुणधारी हैं।
27.) पांच वेदिका सम्बन्धी दोष, छह आरभट आदि प्रतिलेखन सम्बन्धी दोष एवं पच्चीस प्रकार की प्रतिलेखना के ज्ञाता होने से (5+6+25 = 36) गुणधारी हैं।
_28.) सत्ताईस साधु के गुण एवं नव कोटि विशुद्धि के ज्ञाता होने से (27+9 = 36) गुणधारी हैं।
29.) अट्ठाईस लब्धि के धारक एवं आठ प्रकार के प्रभावक होने से (29+8 = 36) गुणधारी हैं।
30.) उनतीस पापश्रुत एवं सात प्रकार की विशुद्धि के ज्ञाता होने से (29+7 = 36) गुणधारी हैं।
31.) तीस मोहनीय स्थान एवं छह अन्तरंग शत्रु के परिज्ञाता होने से (30+6 = 36) गुणधारी हैं।