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________________ अध्याय-6 गणिपदस्थापना विधि का रहस्यमयी स्वरूप जैन अंग आगम आचारचूला में सामान्यत: सात पदों के नाम निर्देश हैं – आचार्य, प्रवर्तक, स्थविर, गणि, गणधर और गणावच्छेदक। उनमें गणि को पांचवें क्रम पर रखा गया है। परस्पर सापेक्ष अनेक कुलों का समुदाय गण कहलाता है। उस गण का नायक गणि कहा जाता है। गणि को गच्छाधिपति भी कहा जाता है। वर्तमान में यह पद भिन्न अर्थ में रूढ़ हो जाने के कारण इसे आचार्य की अपेक्षा निम्न कोटि का माना गया है। मूलत: गणि और गच्छाधिपति शब्द समानार्थक हैं। गणि ही गच्छाधिपति कहलाता है, किन्तु वर्तमान में गणि एवं गच्छाधिपति दोनों भिन्न-भिन्न अर्थ में व्यवहृत हैं। यहाँ गणिपद से हमारा ध्येय गच्छाधिपति है। प्रसंगवश यह भी उल्लेखनीय है कि मध्यकालवी आचार्यों ने 'गणानुज्ञा' इस शब्द का उल्लेख किया है। इसमें गणि और गणधर दोनों पदों का अन्तर्भाव हो जाता है। शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से देखें तो भी गणि और गणधर समान अर्थ के बोधक हैं, क्योंकि गण को धारण करने वाला ही गणि और गणधर कहलाता है। यद्यपि योग्यता एवं पद संचालन की दृष्टि से दोनों पद भिन्न-भिन्न हैं। . आवश्यकटीका के अनुसार जो अनुत्तर ज्ञान-दर्शन आदि गुण समूह को धारण करते हैं, वे गणधर कहलाते हैं। आगम साहित्य में गणधर शब्द दो अर्थों में प्राप्त होता है। प्रथम अर्थ के अनुसार जो तीर्थङ्करों के प्रमुख शिष्य होते हैं, द्वादशांगी की रचना करते हैं, धर्मसंघ के गणों का नेतृत्व करते हैं तथा अपने गण के श्रमणों को आगम वाचना प्रदान करते हैं, वे गणधर कहलाते हैं। दूसरे अर्थ की अपेक्षा गणधर शब्द आचार्य के सम्बन्ध में प्रयुक्त हुआ है, परन्तु यह प्रयोग परवर्ती साहित्य में ही मिलता है। सम्भवत: इसी अपेक्षा से गणि को गणधर के तुल्य स्थान दिया गया है।
SR No.006244
Book TitlePadarohan Sambandhi Vidhiyo Ki Maulikta Adhunik Pariprekshya Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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