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प्रवर्त्तक पदस्थापना विधि का मार्मिक स्वरूप... 57
इस तरह विक्रम की 9वीं शती तक प्रवर्त्तक के विषय में सामान्य वर्णन ही प्राप्त होता है। तदनन्तर सर्वप्रथम यह विधि प्राचीनसामाचारी में पढ़ने को मिलती है। उसके बाद इससे परवर्ती (विक्रम की 11वीं से 17वीं शती के ) ग्रन्थों में भी तत्सम्बन्धी कोई वर्णन प्राप्त नहीं होता है ।
अतः यह कह सकते हैं कि प्रवर्त्तक पद विधि का एक मात्र ग्रन्थ प्राचीनसामाचारी है। इसी सामाचारी के अनुसार यह विधि प्रस्तुत करेंगे । प्रवर्त्तक पदस्थापना विधि
प्राचीनसामाचारी के अनुसार प्रवर्त्तक पदस्थापना की विधि निम्नलिखित है 14.
वासदान सर्वप्रथम प्रवर्त्तक पद ग्राही शिष्य की परीक्षा करें। फिर श्रेष्ठ मुहूर्त के दिन जिनालय या रचित समवसरण के सन्निकट स्थापनाचार्य एवं गुरु के लिए दो आसन बिछायें। स्थापनाचार्य को ऊँचे आसन पर स्थापित करें। उसके बाद गुरु स्वयं के आसन पर बैठकर वासचूर्ण को अभिमन्त्रित करें। फिर प्रवर्त्तक पद की अनुज्ञा निमित्त लोच किये हुए शिष्य के मस्तक पर उसका क्षेपण करें।
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देववन्दन तदनन्तर देववन्दन करने के लिए एक-एक नमस्कारमन्त्र के कायोत्सर्ग पूर्वक बढ़ती हुई चार स्तुतियाँ बोलें। उसके बाद शान्तिनाथ की आराधना निमित्त एक लोगस्स का कायोत्सर्ग करें तथा द्वादशांगी देवता, श्रुतदेवता, शासनदेवता एवं वैयावृत्यकारक देवता की आराधना निमित्त एक-एक नमस्कारमन्त्र का कायोत्सर्ग करें और कायोत्सर्ग के अनन्तर उनकी स्तुतियाँ बोलें। फिर शक्रस्तव ( णमुत्थुणं सूत्र), परमेष्ठिस्तव एवं जयवीयराय आदि सूत्र बोलें।
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कायोत्सर्ग तत्पश्चात शिष्य एक खमासमणसूत्र पूर्वक वन्दन करें। फिर प्रवर्त्तक पदानुज्ञा देने-लेने के निमित्त गुरु और शिष्य दोनों ही सत्ताईस श्वासोश्वास (सागरवरगंभीरा पर्यन्त लोगस्ससूत्र ) का कायोत्सर्ग करें। कायोत्सर्ग पूर्णकर प्रकट में लोगस्ससूत्र कहें।
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अनुज्ञादान 1. उसके पश्चात प्रवर्त्तक पदग्राही एक खमासमणसूत्र पूर्वक वन्दन करके कहें - 'इच्छकारि भगवन्! तुम्हे अम्हं दिगाइ अणुजाणह' हे भगवन्! आप अपनी इच्छा से मुझे दिशादि ( विहार आदि) की अनुमति
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