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________________ अनुभूति का माधुर्य पवित्रता दो प्रकार की होती है- बहिरंग और अन्तरंग। एक शारीरिक है और दूसरी मानसिक। बाह्य शुद्धि से शरीर की पवित्रता तथा आन्तरिक शुद्धि से मन की पवित्रता बनी रहती है। सुसंस्कृत मानव के लिए दोनों ही आवश्यक है। बहिरंग पवित्रता भी दो प्रकार की होती है एक बाह्य और दूसरी आभ्यंतर। अस्पृश्य पदार्थों को स्पर्श न करना, जल आदि द्वारा शरीर आदि को स्वच्छ रखना बाह्य शुद्धि है और न्यायोपार्जित पदार्थों के सेवन से शरीर को टिकाये रखना भीतरी पवित्रता है। सुस्पष्ट है कि आन्तरिक विशुद्धि आहार शुद्धि से ही संभव है। जैन श्रमण की भिक्षाचर्या मूलत: आभ्यन्तर शुद्धि पर आधारित है। आहार शुद्धि भी दो प्रकार की होती है- 1. न्यायोपार्जित धन द्वारा प्राप्त आहार 2. अभक्ष्य, तामसिक एवं गरिष्ठ आदि पदार्थों से रहित आहार। भिक्षाचर्या में इन दोनों शुद्धियों के साथ निर्दोष आहार की भी प्रधानता है। समाधि युक्त जीवन यात्रा के लिए श्रमण को भी भोजन की आवश्यकता होती है। सर्वथा निराहार रहने पर शरीर टिक नहीं सकेगा और शरीर के अभाव में साधना संभव नहीं। इसलिए श्रमण भी जीवन निर्वाह हेतु भोजन करता है। सामान्य व्यक्ति और श्रमण के भोजन में मुख्य अन्तर यह है कि श्रमण जो कुछ भी खाता है स्वाद के लिए नहीं प्रत्यत औषध के रूप में शरीर रक्षा के लिए खाता है। उसका भोजन हित, मित एवं परिमित होता है। भिक्षाचर्या के अनेक नियमोपनियम हैं। मूलत: मुनि भिक्षा नवकोटि से परिशुद्ध और बयालीस दोषों से रहित होती है। जैसे कि साधु भिक्षा के लिए न दूसरों को किसी तरह की पीड़ा देता है, न दूसरों से दिलवाता है और यदि कोई किसी को पीड़ा दे रहा हो तो उसका अनुमोदन भी नहीं करता है। इसी तरह वह स्वयं की भिक्षा के लिए न आहार पकाता है, न दूसरों से आहार पकवाता है और यदि कोई आहार पका रहा हो तो उसकी अनुमोदना भी नहीं करता है। आहारादि के लिए न स्वयं कोई वस्तु खरीदता है, न दूसरों से आहारादि पदार्थ खरीदकर मंगवाता है और यदि कोई मुनि के निमित्त खरीद रहा हो तो उसकी अनुमोदना भी नहीं
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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