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________________ 164... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन 129. पिण्डनिर्युक्ति, 383 130. जीतकल्पभाष्य, 1276 131. पिण्डनिर्युक्ति, 381 132. वही, 383 133. परिछिण्णं चिय दिज्जति, एसो छिण्णो मुणेतव्वो । जीतकल्प भाष्य, 1277 134. यदा तु सर्वेषामपि हालिकानां योग्यमेकस्यामेव स्थाल्यां कृत्वा प्रेषयति तदा सोऽच्छिन्नः। पिण्डनियुक्ति टीका, पृ. 114 135. (क) पिण्डनिर्युक्ति टीका, पृ. 115 (ख) जीतकल्पभाष्य, 1282 136. अनगार धर्मामृत, 5/15 टीका, पृ. 386 137. (क) मूलाचार, 427 टीका, पृ. 336 (ख) अनगार धर्मामृत, 5/8 138. (क) पिण्डनिर्युक्ति, 388 (ख) प्रवचनसारोद्धार, पृ. 278 139. पिण्डनिर्युक्ति, 389 की टीका, पृ. 116 140. मूलाचार टीका, पृ. 331 141. अनगार धर्मामृत, 5 / 5,6 142. उप्पायण संपायण, निव्वत्तणमो य होंति एगट्ठा । आहारस्सिह पगया, तीए दोसा इमे होंति । (क) पंचाशक प्रकरण, 13/17 (ख) पंचवस्तुक, 753 143. पिण्डनिर्युक्ति, 405-406 टीका, पृ. 119-120 144. जीतकल्प भाष्य, 1317 145. fqusfaffa, 407 146. धाई दूती निमित्ते, आजीव वणीमगे तिमिच्छा य। कोहे माणे माया, लोभे य भवंति दस एते ।। पुव्विं पच्छा संथव, विज्जा मंते य चुण्ण जोगे य।
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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