SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 220
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 156... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन 3. चल- द्रव्यतः आलस्य मरोड़ते हुए आलोचना करना तथा भावतः प्राप्त अशुद्ध भिक्षा को प्रकट नहीं करना । 4. दुर्भाषण - गृहस्थ की भाषा में आलोचना करना । 5. मूक- अस्पष्ट उच्चारण पूर्वक आलोचना करना । 6. ढड्डर- उच्च स्वर से आलोचना करना । इन दोषों का वर्जन करते हुए आहार आदि जिस रूप में ग्रहण किया हो उसी रूप में गुरु से निवेदन करना उत्सर्ग आलोचना विधि है । उत्सर्ग आलोचना सेकृत दोष नष्ट हो जाते हैं, संयम की रक्षा होती है और जिनाज्ञा का परिपालन होता है। प्राचीन उक्ति है “जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन” मुनि जीवन में भाव शुद्धि का विशेष महत्त्व है। भाव शुद्ध होने के लिए आहार शुद्ध होना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। आगम शास्त्रों में मुनि को बयालीस दोषों से रहित आहार लेना का निर्देश इसी अपेक्षा से है। प्रस्तुत अध्याय आम जनता को इन दोषों से रूबरू करवाते हुए विशुद्ध मुनि चर्या के पालन में सहयोगी बनाएगा। सन्दर्भ-सूची 1. सर्वार्थसिद्धि, 2/30/320 2. पिण्डनिर्युक्ति, 85 3. (क) पंचाशक प्रकरण, 13/4 (ख) पंचवस्तुक, 740 4. आहाकम्मुद्देसिय, पूतीकम्मे य मीसजाए य। ठवणा पाहुडियाए, पाओयर कीय पामिच्चे ॥ परियट्टिए अभिहडे, उब्भिन्ने मालोहडे त्तिय । अच्छिज्जे अणिसिट्ठे, अज्झोयरए य सोलसमे ।। (क) (ख) (ग) (घ) (च) पिण्डनिर्युक्ति, 92-93 पिण्डविशुद्धिप्रकरण, 3-4 पंचवस्तुक, 741-742 पंचाशक प्रकरण, 13/5-6 प्रवचनसारोद्वार, 67/564-565
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy