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148... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन 1. संयोजना दोष
संयोजना का शाब्दिक अर्थ है सम्यक प्रकार से योजित करना, मिलाना। जैनाचार्यों के अनुसार आहारादि को स्वादिष्ट बनाने के लिए अन्य द्रव्यों का संयोग करना संयोजना दोष है। संयोजना दो प्रकार की होती है- द्रव्य और भाव। द्रव्य संयोजना के दो प्रकार हैं- बाह्य और आन्तरिक।
गृहस्थ के घर से प्राप्त किसी एक पदार्थ में अन्य स्वादवर्धक द्रव्यों को डलवाना या उनका संयोग करना बाह्य संयोजना है तथा उपाश्रय में भोजन करते समय जो संयोजना की जाती है, वह आंतरिक संयोजना है।
संयोजना के निम्न दो प्रकार भी हैं- (i) उपकरण विषयक (ii) भक्तपान विषयक। ___(i) उपकरण संयोजना- उपकरण विषयक संयोजना भी बाह्य-आभ्यन्तर भेद से दो तरह की होती है जैसे- किसी के यहाँ सुन्दर चोलपट्टा मिल गया तो उसी समय अन्य के घर से श्रेष्ठ चादर मांगकर पहनना, उपकरण विषयक बाह्य संयोजना है। देह विभूषा के लिए उपाश्रय के अन्दर या बाहर सुन्दर चोलपट्टादि तैयार करवा कर पहनना, आभ्यन्तर संयोजना है।
(ii) भक्तपान संयोजना- भक्तपान विषयक संयोजना भी बाह्यआभ्यन्तर भेद से दो तरह की होती है। दूध आदि द्रव्यों का स्वाद बढ़ाने हेतु गृहस्थ से शक्कर आदि डलवाना भक्तपान विषयक बाह्य संयोजना है।
आभ्यन्तर संयोजना तीन तरह की निर्दिष्ट है(i) पात्र विषयक - पात्र में रखी गई वस्तु के साथ घी या मिर्च मसाला आदि अन्य द्रव्य का मिश्रण करना, पात्र विषयक संयोजना दोष है। ___ii) कवल विषयक - हाथ में रहे हुए ग्रास के स्वाद की वृद्धि हेतु उसमें शर्करा, मुरब्बा, चटनी या अन्य द्रव्य का मिश्रण करना, कवल विषयक संयोजना दोष है। ___(ii) मुख विषयक - मुँह में कवल लेने के पश्चात उसके स्वाद को बढ़ाने हेतु गुड़ आदि अन्य द्रव्यों को मुख में डालना, मुख विषयक संयोजना दोष है।243
पंचवस्तुक ग्रन्थ में आभ्यन्तर संयोजना के पात्र और मुख सम्बन्धी ऐसे दो भेद ही किये गये हैं।244