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आहार से सम्बन्धित बयालीस दोषों के कारण एवं परिणाम ... 145 7. उन्मिश्र (मिला हुआ) दोष
सचित्त बीज आदि से मिश्रित भिक्षा ग्रहण करना उन्मिश्र दोष है 1 226 जैसे किसी गृहस्थ के घर मुनि भिक्षार्थ गये और वहाँ देने योग्य वस्तु अल्प हो, तो गृहस्थ लज्जावश देय वस्तु में करौंदे, दाडिम के दाने आदि मिलाकर दें अथवा अलग-अलग वस्तुओं को देने में समय अधिक लगेगा इस भाव से सदोष एवं निर्दोष वस्तुओं को मिलाकर दें अथवा मुनियों के सचित्त त्याग का नियम खंडित हो इस प्रकार लज्जा, भक्ति, द्वेष या अनाभोग से शुद्ध-अशुद्ध आहार को मिलाकर देना, उन्मिश्र दोष है।
पिण्डविशुद्धि प्रकरण में उन्मिश्र की यही व्याख्या की गई है। तदनुसार भिक्षा देने योग्य तथा भिक्षा के अयोग्य वस्तुओं को मिलाकर भिक्षा देना उन्मिश्र दोष है। 227 मूलाचार में भी उन्मिश्र दोष की यही व्याख्या मिलती है।228 अनगारधर्मामृत में इसके लिए विमिश्र अथवा मिश्र दोष का उल्लेख है। 229
उन्मिश्र दोष मुख्यतः तीन प्रकार का होता है - 1. सचित्त 2. अचित्त और 3. मिश्र। इनकी तीन चतुर्भंगियों में से अंतिम की दो चतुर्भंगियों में प्रारम्भ के तीन विकल्प निषिद्ध तथा चौथे विकल्प की भजना है। प्रथम चतुर्भंगी के चारों विकल्पों में भिक्षा निषिद्ध है। संहृत द्वार की भाँति इसमें भी पृथ्वीकाय आदि के संयोगिक भंग समझने चाहिए तथा शुष्क और आर्द्र के चार विकल्प संहरण दोष की भाँति ही जानने चाहिए | 230
उन्मिश्र और संहृत दोष में मुख्य अन्तर यह है कि ग्राह्य और अग्राह्य दोनों तरह के पदार्थों को मिलाकर देना उन्मिश्र दोष है तथा बर्तन में पहले से रखी गई सदोष वस्तु को अन्य बर्तन में निक्षिप्त कर उसमें निर्दोष वस्तु डालकर भिक्षा के रूप में देना संहत दोष है | 231
8. अपरिणत (अर्धपक्व ) दोष
जो वस्तु पूर्णतः अचित्त न हुई हो अथवा जिसको देने के लिए दाता का मन नहीं हो, उसे लेना अपरिणत दोष है | 232 दशवैकालिकसूत्र में अपरिणत के लिए 'अनिव्वुड' शब्द का प्रयोग हुआ है। 233 दिगम्बर परम्परा के अनुसार तिलोदक, तण्डुलोदक, उष्ण जल, चने का धोवन, तुषोदक यदि पूर्ण अचित्त न हुए हों अथवा और भी वस्तुएँ जो अपरिणत हों, उन्हें लेना अपरिणत दोष है | 234 यह दोष दो प्रकार का होता है- द्रव्य अपरिणत तथा भाव अपरिणत । दाता और ग्रहणकर्ता की दृष्टि से इन दोनों के दो-दो भेद होते हैं