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108... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन
पिण्डनियुक्ति के अनुसार प्रामित्य दोष दो प्रकार का होता है- लौकिक और लोकोत्तर।94 ___(i) लौकिक प्रामित्य- बहिन आदि पारिवारिक व्यक्तियों से साधु के लिए घी आदि लौकिक वस्तुएँ उधार लेकर देना, लौकिक प्रामित्य दोष है।
__ हानि-लौकिक प्रामित्य दोष का सेवन करने पर यदि उधार व्यक्ति का माल या पैसा समय पर न लौटा सकें तो कोई निष्ठुर व्यक्ति उधार लेने वाले को दण्ड आदि से परेशान कर सकता है, कैद करवा सकता है जिसके कारण वह आहार दाता भी धर्म विहीन हो सकता है। ___(ii) लोकोत्तर प्रामित्य- परस्पर साधुओं में एक-दूसरे को उधार देना लोकोत्तर प्रामित्य दोष है। यह दोष भी दो प्रकार से होता है।
• किसी मुनि के द्वारा अन्य मुनि से यह कहकर वस्त्र आदि ग्रहण करना कि कुछ दिन उपयोग करके तुम्हारा वस्त्र वापस लौटा दूंगा।
• किसी मुनि से यह कहकर वस्त्रादि ग्रहण करना कि इतने दिनों के बाद इसके जैसा ही दूसरा वस्त्र आपको दे दूंगा, यह लोकोत्तर प्रामित्य है। मूलत: इस प्रकार से वस्त्रादि का लेन-देन करना साधु के लिए अनाचरणीय है।
परिणाम- प्रथम भेद में यदि वस्त्र मैला हो जाए, खो जाए, चुरा लिया जाए अथवा वस्त्र लौटा न पाये तो कलह की संभावना रहती है।
दुसरी प्रकार से उधार लेने पर उससे अच्छा या विशिष्ट वस्त्र देने पर भी कोई दीर्घाकांक्षी मुनि कलह कर सकता है। 10. परिवर्तित दोष
साधु को देने के निमित्त पड़ोसी या किसी अन्य से वस्तु का विनिमय (अदला-बदली) कर भिक्षा आदि देना, परिवर्तित दोष है।95 यह दोष भी दो प्रकार का कहा गया है- लौकिक और लोकोत्तर। दोनों के दो-दो भेद होते हैं1. तद्रव्य विषयक और 2. अन्यद्रव्य विषयका96
(i) लौकिक तद्रव्य अन्यद्रव्य विषयक- कुछ दिन पूर्व तपाये हुए घी के बदले सुगन्ध युक्त घी लेकर साधु को देना तद्र्व्यविषयक लौकिक परावर्त है तथा कोद्रव धान्य देकर शाली युक्त चावल आदि लेना लौकिक अन्यद्रव्य परावर्त दोष है।97