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70... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन कि यदि जैन मुनि उक्त कुलों में नित्य गमन करने लगेंगे तो उन्हें विशेष सामग्री तैयार करनी पड़ेगी अथवा जो वहाँ से नित्य आहार प्राप्त करते हैं उन भिक्षुकों को कम आहार मिलने से उन्हें पीड़ा पहुँच सकती है। उक्त दोनों स्थितियों में आरम्भ की संभावना है। यदि दानी गृहस्थ अधिक आहार बनवाता है तो नया आरंभ होता है, षट्काय जीवों की विराधना होती है और पश्चात्कर्म आदि दोष लगते हैं। कदाचित गृहस्थ नया भोजन न भी बनाएं किन्तु प्रतिदिन आहार प्राप्त करने वाले भिक्षाचरों के हिस्से में कटौती करनी पड़ेगी, जिससे अंतराय कर्म बंधेगा तथा उन भिक्षुकों के मन को भी पीड़ा पहुँच सकती है इसलिए नित्य पिण्ड एवं अग्र पिण्ड वाले कुलों में जैन मुनियों को भिक्षार्थ जाने का निषेध किया गया है।36
पर्व स्थानों में जाने का निषेध- जैन मुनि भिक्षा सम्बन्धी नियमों के अनुसार हर प्रकार का आहार ग्रहण नहीं कर सकते हैं। मुख्यतया जहाँ अष्टमी आदि पर्वो पर पौषधोपवास का महोत्सव हो अथवा इसी तरह एक पक्ष, दो, तीन, चार, पाँच अथवा छह महीनों के पौषधोपवास का उत्सव हो अथवा ऋतु, ऋतु सन्धि (दो ऋतुओं का सन्धि काल) और ऋतु परिवर्तन (एक ऋतु के अनन्तर दूसरी ऋतु का आरम्भ होना) का महोत्सव हो और उस समय शाक्यादि भिक्षु, श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, याचक आदि को भोजन करवाया जा रहा हो तो उन गृहस्थों के घरों में मनि को भिक्षार्थ नहीं जाना चाहिए।
दोष- यद्यपि उक्त प्रकार का भोजन आधाकर्म दोष से युक्त नहीं होता, फिर भी मनियों के लिए इस प्रकार का आहार तब तक वर्जित है जब तक वह दूसरे के हिस्से का दिया नहीं जा चुका हो। यदि यह आहार एकान्त रूप से शाक्यादि भिक्षओं को देने के लिए ही बनाया गया हो और उसमें से परिवार के सदस्य एवं परिजन आदि अपने उपभोग में नहीं लेते हों तब तो वह आहार किसी भी स्थिति में साधु के लिए ग्राह्य नहीं होता है इससे उन शाक्यादि संन्यासियों को अन्तराय लगती है। दूसरा कारण यह है कि किसी धार्मिक या लौकिक पर्यों के प्रसंग पर पुण्यार्थ या दानार्थ बनाया गया आहार लेने से साधु को आरंभ आदि दोष लगते हैं क्योंकि दानी गृहस्थ दान के निमित्त आरम्भ समारम्भ करता है अत: किसी भी उत्सव के होने पर जैन मुनि इन गृहों में भिक्षार्थ न जाएं। महोत्सवों में आहारार्थ गमन न करने से मुनि की संतोषवृत्ति एवं त्यागवृत्ति प्रकट होती है।37