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वर्तमान युग में भिक्षाचर्या का औचित्य एवं उसके नियमोपनियम ...41 द्वारा अवशिष्ट आहार का सेवन करने पर भी उन्हें तप भंग का दोष नहीं लगता है क्योंकि इस प्रकार के आहार भोग में आसक्ति का अभाव और गुर्वाज्ञा प्रधान होने से तप खण्डित नहीं होता है।
_आगमिक व्याख्याओं में इसके सम्बन्ध में यह भी कहा गया है कि चिकित्सा हेतु उपवास करने वाले, तेला से अधिक उपवास करने वाले, ग्लान
और आत्म लब्धिवान मुनि को बचा हुआ आहार न दें, जबकि शेष मुनियों को अवशिष्ट आहार देने का स्पष्ट उल्लेख है। आहार और विवेक __ आहार करते समय मुनि को सबसे पहले स्निग्ध और मधुर पदार्थ खाने चाहिए। इनसे पित्त आदि का शमन होता है और शक्ति एवं बुद्धि का संवर्धन होता है। अनुभवियों ने कहा भी है 'घृतेन वर्धते मेधा' घृत से मेधा बढ़ती है।
शास्त्रीय दृष्टिकोण से विरोधी अथवा बेमेल द्रव्यों को मिलाकर न खायें। इससे आहार अहितकर हो जाता है जैसे दही और तेल का मिश्रण तथा दूध, दही और कांजी का मिश्रण करना आदि अलाभकारी है। इस तरह के आहार का सेवन करने पर कई रोगों के उत्पन्न होने की संभावना बढ़ जाती है। अतः अविरुद्ध द्रव्यों के मिश्रण वाला ही आहार करना चाहिए। वही पथ्य आहार माना जाता है। पथ्य आहार के सेवन से पुराना रोग नष्ट हो जाता है और नया रोग उत्पन्न नहीं होता।
__मुनि को यह विवेक रखना भी अत्यावश्यक है कि वह आहार करते समय सुर-सुर या चव-चव की आवाज न करे। आहार को अति शीघ्रता से या अति धीरे-धीरे न खाए, नीचे बिखेरते हुए या राग-द्वेष युक्त विचारों से न खाएं।10 ___ दशवैकालिक सूत्र में आहार विवेक के प्रति सचेत करते हुए मुनि को सुरा, मेरक या अन्य किसी प्रकार का मादक रस पीने का निषेध किया गया है, क्योंकि मादक रस का सेवन करने से उन्मत्तता, माया, मृषा, अयश, अतृप्ति और असंयम में प्रवृति आदि दोष लगते हैं।11
प्रस्तुत सूत्र में यह भी बतलाया गया है कि कदाच किसी मुनि को सरस आहार की प्राप्ति हो जाये और वह सोचने लगे कि आचार्य आदि को दिखाने पर वे स्वाद के वशीभूत होकर अकेले ही ग्रहण कर लेंगे अत: मार्ग में ही सरस