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श्रमण का स्वरूप एवं उसके विविध पक्ष...31
प्रकारान्तर से आचार्य उमास्वाति106, आचार्य हरिभद्र107, आचार्य अमितगति108 तथा आचार्य हेमचन्द्र109 ने 1. मैत्री 2. प्रमोद 3. कारुण्य और 4. माध्यस्थ इन चार भावनाओं का उल्लेख किया है।
अप्रशस्त-अप्रशस्त भावनाएँ नौ और पाँच प्रकार की बतायी गयी हैं।110 ___1. हिंसानुबन्धी भावना 2. मृषानुबन्धी भावना 3. स्तेयानुबन्धी भावना 4. मैथुन सम्बन्धी भावना 5. परिग्रह सम्बन्धी भावना 6. क्रोधानुबन्धी भावना 7. मानानुबन्धी भावना 8. मायानुबन्धी भावना 9. लोभानुबन्धी भावना।
बृहत्कल्पभाष्य में अशुभ भावनाओं के निम्नोक्त पाँच प्रकार प्रज्ञप्त हैं-1. कन्दी भावना 2. किल्विषी भावना 3. आभियोगी भावना 4. आसुरी भावना 5. सम्मोही भावना।111
तुलना-उपर्युक्त बारह भावनाएँ साधक को अशुभ ध्यान से हटाकर शुभध्यान में स्थिर करती हैं, संसार से विरक्ति पैदा करती हैं तथा चैतन्य केन्द्र में पवित्र संस्कारों का बीजारोपण करती हैं। यदि इन द्वादश भावनाओं का विकास क्रम की दृष्टि से विचार किया जाये तो जैन आगम साहित्य एवं जैन टीका साहित्य में कहीं भी इनका व्यवस्थित वर्णन नहीं मिलता है, यद्यपि बीज रूप में अनेक स्थलों पर इन भावनाओं का वर्णन है। आगम साहित्य में से विकीर्ण भावनाओं को व्यवस्थित आकार देने का कार्य आचार्य कुन्दकुन्द ने किया है। उन्होंने इस विषय पर बारसाणुपेक्खा नामक ग्रन्थ रचा है।112 इसके पूर्व आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में संक्षिप्त और प्रशमरतिप्रकरण में इन बारह अनुप्रेक्षाओं का विस्तृत वर्णन किया है। यद्यपि आचार्य कुन्दकुन्द के और उमास्वाति के वर्णन क्रम में कुछ अन्तर है किन्तु भाव एक सदृश हैं। इसके अनन्तर आचार्य वट्टकेरकृत मूलाचार113, आचार्य नेमिचन्द्रकृत बृहद्र्व्यसंग्रह 14, आचार्य शुभचन्द्रकृत ज्ञानार्णव 15 आचार्य हेमचन्द्रकृत योगशास्त्र116, स्वामीकार्तिकेय रचित कार्तिकेयानुप्रेक्षा|17, उपाध्याय विनय विजयकृत शान्तसुधारस118, पण्डित रत्नचन्द्रकृत भावनाशतक119 आदि में बारह भावनाओं का सम्यक् विवेचन है।
यदि तुलना की दृष्टि से समीक्षा करें तो पूर्वोक्त ग्रन्थों में इनके नाम एवं स्वरूप में पूर्णत: साम्य है। किन्हीं-किन्हीं ग्रन्थों में क्रम को लेकर किंचित भेद हैं।