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________________ श्रमण का स्वरूप एवं उसके विविध पक्ष...29 लोभ को रोकने का प्रयत्न करना चाहिए। इसी प्रकार तीन गुप्तियों द्वारा तीनों योगों को, अप्रमाद से प्रमाद को, त्याग से अव्रतों को दूर करना चाहिए।102 लाभ-संवर भावना का चिन्तन करने से साधक क्रियाओं के प्रति रुचिवन्त बनता है और उनका पालन करते हुए सिद्धिपद को समुपलब्ध कर लेता है। 9. निर्जरा भावना- जिन कर्मों का बन्ध पहले हो चुका है उनको नष्ट करने के उपायों का विचार करना निर्जरा भावना है। निर्जरा का अर्थ है निर्जरित होना, क्षय होना। निर्जरा भावना के माध्यम से पूर्वोपार्जित कर्मों का क्षरण होता है। यह निर्जरा सकाम और अकाम दो तरह से होती है। कर्म क्षय के उद्देश्य से तपस्या आदि करके उनका क्षय करना सकाम निर्जरा है एवं फल देकर कर्मों का स्वभावत: अलग हो जाना अकाम निर्जरा है। जैन ग्रन्थों में कर्म निर्जरा के लिए छह बाह्य और छह आभ्यन्तर बारह प्रकार के तप को आसेवित करने का विधान है, अत: निर्जरा भावना के साधक को यथाशक्ति तप भी करना चाहिए। लाभ-निर्जरा भावना के अनुचिन्तन से आत्मा तप करने हेतु उद्यमशील बनती है और अन्ततोगत्वा कर्मक्षय कर शुद्ध-बुद्ध परिमुक्त बन जाती है। 10. लोक भावना- लोक की रचना, आकृति, स्वरूप आदि का विचार करना लोक भावना है। लोक स्वरूप का चिन्तन इस प्रकार करना चाहिए कि यह लोक किसी के द्वारा निर्मित नहीं है। इसका रक्षक और संहारक भी कोई नहीं है। यह अनादिकाल से चला आ रहा है। इस लोक के अग्रभाग पर सिद्ध स्थान है। सिद्ध स्थान के नीचे ऊपर के भाग में स्वर्ग और अधोभाग में नरक है। इसके मध्यभाग में तिर्यञ्चों एवं मनुष्यों का निवास है। लोक के चारों ओर अनन्त आकाश है। इस लोक में आत्मा ज्यों-ज्यों ऊपर की ओर बढ़ती है त्यों-त्यों सुख बढ़ता जाता है। अत: मुझे आत्म विकास के उपायों को अपनाकर लोकाग्र तक पहुँचना है। __ लाभ-लोक भावना के अनुचिन्तन से तत्त्वज्ञान की विशुद्धि होती है और चेतना भीतर की ओर स्थिर हो जाती है। चेतना के स्थैर्य से आध्यात्मिक सुखों की प्राप्ति अनायास होने लगती है। ____ 11. बोधिदुर्लभ भावना- बोधि का अर्थ है ज्ञान। मुझे जो बोध प्राप्त हुआ है उसका सम्यक् आचरण करना मेरे लिए अत्यन्त दुष्कर है, फिर भी यदि
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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