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10...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन किया है। दशवैकालिकनियुक्ति में श्रमण का साक्षात स्वरूप दर्शाते हुए उसके लिए अनेक उपमाएँ दी गई हैं, जो संक्षेप में निम्न प्रकार हैं31
• श्रमण सर्प की भाँति एकाग्र दृष्टि वाला तथा परकृत आवास में रहता है। जैसे सर्प बिल का स्पर्श किए बिना उसमें प्रवेश कर जाता है वैसे ही साधु आहार का स्वाद लिए बिना उसको निगल जाता है। • वह पर्वत की भाँति निश्चल और शील पालन में अडिग रहता है। • वह अग्नि की भाँति तेजस्वी होता है। . वह सागर की भाँति गम्भीर होता है। . वह गगन की तरह निराश्रयी-निरालंब होता है। • वह वृक्ष की भाँति अनुकूल-प्रतिकूल में समभाव रखता है। • वह भ्रमर की तरह अनियत वृत्तिवाला होता है। . वह मृग की तरह संसार भय से उद्विग्न रहता है। • वह पृथ्वी की तरह सब कुछ सहन करने वाला होता है। • वह कमल की तरह निर्लेप रहता है। • वह सूर्य की भाँति स्व-पर प्रकाशक होता है। • वह वायु की भाँति अप्रतिबद्ध विहारी होता है। . वह विष की भाँति सर्वरसानुपाती होता है। . वह तिनिस वृक्ष की तरह नमनशील होता है। • वह वंजुल वृक्ष की तरह विष का उपशमन करने वाला होता है। • वह कर्णवीर की भाँति स्पष्ट होता है। • वह उत्पल की भाँति शील-सौरभ से युक्त होता है। • वह उंदुर की भाँति देश-काल के अनुसार आचरण करने वाला होता है। . वह नट की तरह विविध स्थितियों का वेदन करने वाला होता है। . वह कुक्कुट की भाँति संविभागी और दर्पण की भाँति स्पष्ट होता है। ___इन उपमाओं का भावार्थ यह है कि मुनि को उक्त गुणों से युक्त होना चाहिए। मुनि के लिए आवश्यक गुण
जैन परम्परा में श्रमण जीवन की कुछ आवश्यक योग्यताएँ स्वीकारी गयी हैं। श्वेताम्बर मत के अनुसार श्रमण को 27 मूल गुणों से युक्त होना चाहिए। श्वेताम्बर परम्परा का वर्गीकरण दिगम्बर परम्परा के वर्गीकरण से थोड़ा भिन्न है।
श्वेताम्बर मान्यतानुसार श्रमण के 27 मूलगुण इस प्रकार हैं32- 1-5. पंच महाव्रत का पालन करने वाला हो 6. रात्रिभोजन का त्यागी हो 7-11. पाँच इन्द्रियों पर संयम रखता हो 12. आन्तरिक पवित्रता रखता हो 13. उपधि की पवित्रता हो 14. क्षमावान हो 15. अनासक्त हो 16. मन की सत्यता हो