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8...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
4. संसक्त- मूलगुण और उत्तरगुण का पालन करते हुए उनमें सन्निहित दोषों का सेवन करने वाला मुनि संसक्त कहलाता है।
5. यथाछन्द- जो साधु सूत्र विपरीत प्ररूपणा करता है, सूत्र विरुद्ध आचरण करता है, गृहस्थ कार्यों में प्रवृत्ति करता है, विषय आदि में आसक्त है, तीन गारव से गर्वोन्मत्त है, वह यथाछन्द कहलाता है।19
तुलना- उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि जैन परम्परा में प्रशस्तअप्रशस्त कोटि की अपेक्षा श्रमणों के द्विविध, पंचविध आदि अनेक भेद किये गये हैं। यदि ऐतिहासिक दृष्टि से अध्ययन किया जाए तो इन भेद-प्रभेदों की चर्चा अनुक्रमशः स्थानांग20, भगवती21, व्यवहारभाष्य22, हरिभद्रीयावश्यकटीका23, प्रवचनसारोद्धार24 आदि ग्रन्थों में उपलब्ध होती है। ___ यदि तुलनापरक दृष्टि से विचार करें तो जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में श्रमणों के उक्त प्रकार समान रूप से माने गये हैं किन्तु दिगम्बर साहित्य में इनमें से कुछ प्रकार ही उपलब्ध हैं।
डॉ. सागरमल जैन ने वैदिक परम्परागत संन्यासियों के चार प्रकारों का उल्लेख किया है।25 ___ 1. कुटीचक्र- इस स्तर वाले साधक अपने घर पर ही संन्यास धारण करते हैं तथा अपने पुत्रों द्वारा निर्मित कुटिया में रहते हुए उन्हीं की भिक्षा ग्रहण कर साधना करते हैं।
2. बहूदक- इस कोटि के संन्यासी त्रिदण्ड, कमण्डलु एवं कषाय वस्त्रों से युक्त होते हैं तथा सात ब्राह्मण घरों से भिक्षा माँगकर जीवन यापन करते हैं।
3. हंस- यह संन्यासी ग्राम में एक रात्रि और नगर में पाँच रात्रि से अधिक नही बिताते हैं तथा उपवास एवं चान्द्रायण व्रत करते रहते हैं।
4. परमहंस-इस कोटि के संन्यासी सदैव पेड़ के नीचे शून्यगृह या श्मशान में निवास करते हैं।
तुलानात्मक दृष्टि से जैन परम्परा के जिनकल्पी मुनि को परमहंस या अवधूत श्रेणी का माना जा सकता है तथा संन्यासियों के अन्य प्रकार की तुलना स्थविरकल्पी मुनियों से की जा सकती है।