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376...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन मृत शरीर को पूर्व प्रतिलेखित निर्जीव भूमि पर विधिपूर्वक स्थापित कर देना अथवा विसर्जित कर देना महापरिष्ठापनिका विधि है। इसका अपर नाम शव परिष्ठापन भी है। मूलत: यह शास्त्रीय शब्द है। वर्तमान में इसे अन्तिम संस्कार कहते हैं। महापरिष्ठापनिका की शास्त्रीय विधि __मृत श्रमण के शव परिष्ठापन की सामान्य विधि सर्वप्रथम बृहत्कल्पसूत्र में परिलक्षित होती है। उसमें कहा गया है कि यदि किसी भिक्षु का रात्रि में या विकाल में निधन हो जाए तो उस मृत भिक्षु के शरीर को कोई वैयावृत्य करने वाला साधु अचित्त भूमि पर परिष्ठापित करना चाहे तब यह ध्यान रखें कि यदि वसति के समीप मृतदेह के वहन योग्य काष्ठ हो तो उसे प्रातिहारिक रूप से (पुन: लौटाने का कहकर) ग्रहण करें और उसके द्वारा मृत भिक्षु के शरीर को एकान्त में विसर्जित कर उस वहनकाष्ठ को यथास्थान पर लाकर रख दें।
वहनकाष्ठ के सम्बन्ध में साधु सामाचारी यह है कि साधुगण जहां मासकल्प या वर्षावास करने का विचार करते हैं वहाँ आचार्य सर्वप्रथम यह निरीक्षण करें कि अमुक स्थान ठहरने योग्य है या नहीं? यदि ठहरने योग्य है तो सहवर्ती साधुओं में अमुक भक्त प्रत्याख्यान करने वाला है, अमुक रोगी है, अमुक वृद्ध है, इनमें से किसी का देहान्त हो जाए तो उसे महास्थंडिल भूमि तक उठाकर ले जाने योग्य काष्ठ यहाँ पर उपलब्ध है या नहीं? मृतदेह के परिष्ठापन करने योग्य भूमि निर्दोष है या नहीं? इन स्थितियों का भलीभांति विचार करने के पश्चात मासकल्प या वर्षावास की स्थापना करें।
तदनन्तर भिक्षु जहाँ पर मासकल्प या वर्षावास आदि के निमित्त रूके हए हों वहाँ अनशनधारी साधु, रुग्ण साधु या साँप आदि के काटने से किसी अन्य साधु का निधन हो जाए तो उस शव को वसति या उपाश्रय में अधिक समय तक न रखें। अपितु पूर्वोक्त विधि से वहन काष्ठ द्वारा उस शव को यथाशीघ्र निर्जीव भूमि में विसर्जित कर वहनकाष्ठ या बांस आदि को यथास्थान पर रख दें। यदि वहनकाष्ठ को यथास्थान रखना भूल जाएं तो अनेक दोषों की संभावना रहती है।
दोष- आवश्यकनियुक्ति के अनुसार कदाचित वहनकाष्ठ शवस्थापन भूमि पर ही छोड़ दिया जाए तो उसका उपयोग अग्नि प्रज्वलित करने, किसी दुष्टादि