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स्थंडिल गमन सम्बन्धी विधि- नियम... 369
परन्तु स्थंडिल के प्रकार आदि में कोई भिन्नता नहीं है।
यदि जैन संघ की विविध परम्पराओं की अपेक्षा से इसकी तुलना करें तो स्थंडिल सम्बन्धी विधि - नियम सभी के लिए समान रूप से आचरणीय है एवं सभी के द्वारा समान रूप से स्वीकृत भी किया गया है । जहाँ तक हिन्दू एवं बौद्ध परम्परा का प्रश्न है वहाँ संन्यासियों एवं भिक्षु भिक्षुणियों के लिए लगभग ऐसे नियमों की कोई व्यवस्था नहीं है।
यदि इस नियम के परिपालन की अपेक्षा से चिंतन करें तो प्राचीन काल में इस विधि का निर्वाह करना जितना सहज एवं सुगम था वर्तमान में वह उतना ही दूभर हो गया है तथा देश-कालगत परिस्थिति के कारण इसमें अनेक परिवर्तन भी देखे जाते हैं।
उपसंहार
जीवन की शुद्धता एवं स्वतंत्रता के लिए मुनि को अनेक नियम एवं मर्यादाओं के पालन करने का निर्देश है। स्थंडिल गमन भी मुनि का एक ऐसा ही दैनिक आचार है जिसके द्वारा वह अपनी शारीरिक अशुचि का निर्गमन इस प्रकार करता है कि अन्य किसी को उससे कोई तकलीफ न हो। पूर्वकाल में गृहस्थ वर्ग एवं श्रमण वर्ग दोनों के द्वारा ही बाह्य निर्जन भूमि खण्ड पर ही अशुचि निर्गमन किया जाता था अतः किसी प्रकार की समस्या प्राय: उत्पन्न नहीं होती थी।
यदि वर्तमान संदर्भों में स्थंडिल नियमों का अध्ययन किया जाए तो इसका स्वरूप परिवर्तित हो चुका है। आजकल बाह्य खुली भूमि में स्थंडिल गमन को असभ्य आचरण माना जाता है । अनेक स्थानों पर इसका विरोध करते हुए जनसामान्य द्वारा अनेक विकट परिस्थितियाँ भी उत्पन्न की जाती है। बड़े-बड़े शहरों में बढ़ती आबादी एवं क्षेत्र विस्तार के कारण 5-10 किमी तक भी योग्य भूमि प्राप्त नहीं होती। यदि योग्य स्थान मिल भी जाए तो प्रायः दिन के समय में परिष्ठापन करना असंभव होता है एवं अधिक रात्रि या प्रात: बेला में भी जाना सुरक्षापूर्ण नहीं होता। ग्रामीण क्षेत्रों में भी आजकल निर्जीव एवं निर्दोष भूमि का अभाव सा हो गया है। ऐसी स्थिति में शुद्ध रूप से स्थंडिल नियमों का पालन तो प्रायः असंभव है। वर्तमान स्थिति में काल - अकाल संज्ञा का भेद तो नहींवत ही रह गया है। अनेक बार आहार करने से स्थंडिल आदि के लिए भी बार-बार