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स्थंडिल गमन सम्बन्धी विधि-नियम...365
छाया - जिस मुनि के पेट में कृमि हो, मल ढ़ीला लगता हो तो वह वृक्षादि की छाया में मल का विसर्जन करें। यदि छाया न हो तो धूप में भी मलोत्सर्ग किया जा सकता है परन्तु यह विवेक रखना आवश्यक है कि मलोत्सर्ग उस विधिपूर्वक करें कि स्वयं की छाया मल के ऊपर गिर सकें अथवा स्वयं की छाया उस मल के ऊपर गिरती रहे - उस प्रकार से एक मुहूर्त्त तक वहाँ खड़ा भी रहे, क्योंकि कृमि आदि के जीव एक मुहूर्त्त तक जीवित रहते हैं।
प्रमार्जन - आचार्य हरिभद्रसूरि इस सम्बन्ध में यह भी कहते हैं कि मल विसर्जन के लिए बैठने से पूर्व ऊर्ध्व, अधो और तिरछी दिशाओं का निरीक्षण करें। 'वृक्ष और पर्वत है या नहीं' इस अपेक्षा से ऊपर की ओर देखें, 'खड्डाबिल आदि में जीव हैं या नहीं' इस अपेक्षा से नीचे की ओर देखें, 'विश्राम करने के लिए कोई व्यक्ति बैठा हुआ है या नहीं' इस अपेक्षा से तिरछी दिशा की ओर देखें। यदि वहाँ कोई गृहस्थ दिखाई न दें तो स्वयं के पाँवों का प्रमार्जन करें। उसके बाद ‘अणुजाणह जस्सावग्गहो' - इस परिमित स्थान का उपयोग करने की अनुमति दीजिये, इतना कहकर उस भूमि के स्वामी से अनुमति ग्रहण करें। फिर संडाशक आदि की प्रमार्जना करें और उस भूमि का तीन बार निरीक्षण करें।
डगल ग्रहण—उसके बाद उकडूं आसन में बैठकर पत्थर आदि छोटे-छोटे टुकड़े लें। उन टुकड़ों को जमीन पर धीरे से ठोकें ताकि उसमें कोई सूक्ष्म जीव रहा हो तो निकल जाये। जिसको मल (झाड़ा) ढीला होता हो वह तीन डगल लें और अन्य साधु दो डगल लें। जिसको मस्सा या भगंदर हुआ हो वह डगल न लें।
विसर्जन क्रिया - मल विसर्जन के लिए बैठते समय दंड और रजोहरणइन दो उपकरणों को बायें पाँव की साथल पर रखें। मात्रक को दायें हाथ में लें। डगल (पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़ों) को बायें हाथ में रखें। मल विसर्जन की क्रिया हो जाने पर जहाँ बैठे हों वहाँ अथवा अन्य स्थान में जाकर अपान स्थान को पोछें। फिर वहाँ से कुछ दूर हटकर, तीन चुल्लू पानी से अपान का प्रक्षालन करें।
इस प्रकार स्थंडिल भूमि में दिशा, पवन, गाँव, सूर्य, डगल, मार्जन आदि नियमों का ध्यान रखते हुए मलोत्सर्ग करें। यही शास्त्रीय विधि है।