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336...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन जाती है 2. भूमि- घास में रहने वाले छोटे जन्तुओं से, भूमि में रहने वाले केंचुआ, गिजाई आदि जीवों से तथा अन्य छोटे-बड़े त्रस जीवों से व्याप्त हो जाती है, अत: सावधानीपूर्वक विहार करने पर भी उनकी विराधना सम्भव है 3. पानी के बरसने से मार्ग में पड़ने वाले नदी-नाले भी अधिक जल-राशि से प्रवाहित रहते हैं अत: साधु-साध्वियों को उनको पार करने में बाधा हो सकती है और 4. विहार करते समय यदि पानी बरसे तो उनके वस्त्र एवं उपधि के भीगने की भी सम्भावना रहती है, जिससे अप्काय जीवों की विराधना होती है। अत: साधु-साध्वी को वर्षाकाल में चार मास तक एक स्थान पर रहना चाहिए। __ शेष काल में विहार करते रहने से संयम धर्म की अभिवृद्धि, धर्म प्रभावना, ब्रह्मचर्य समाधि एवं स्वास्थ्य लाभ होता है तथा जिनाज्ञा का परिपालन होता है। अत: वर्षाकाल के सिवाय भिक्षु को एक स्थान पर नहीं रुकना चाहिए। तुलनात्मक विवेचन
यदि विहार संबंधी विधि-नियमों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो स्पष्ट होता है कि बृहत्कल्पसूत्र, ओघनियुक्ति, बृहत्कल्पभाष्य, व्यवहारभाष्य, निशीथभाष्य, पंचवस्तुक आदि में जैन मुनि की विहारचर्या के भिन्न-भिन्न पक्षों पर विचार किया गया है। किन्हीं ग्रन्थों में विहार के प्रकार चर्चित हैं तो किन्हीं में विहार के प्रयोजन तो किसी में विहार सम्बन्धी विधि-विधान बताये गये हैं। विहार सम्बन्धी विधि-विधान एवं तद्विषयक मर्यादाएँ जैन परम्परा के साधुसाध्वियों के लिए एक समान हैं।
मूलाचार में दिगम्बर भिक्ष-भिक्षणियों के यात्रा सम्बन्धी नियम प्रायः श्वेताम्बर परम्परा के सदृश ही बतलाये गये हैं, जैसे 1. वर्षावास के अतिरिक्त शेष आठ महीनों में इतस्तत: उत्सर्ग रूप से परिभ्रमण करें, अकारण एक स्थान पर न रहें 2. शान्तचित्त से यात्रा करें 3. जिस मार्ग पर बैलगाड़ी, यान, पालकी, हाथी, घोड़े आदि का सदैव आवागमन हो, ऐसे अचित्त भूमि पर ही विहार आदि करें और 4. जीव-जन्तु युक्त मार्ग पर कदापि गमन न करें इत्यादि विविध नियम श्वेताम्बर सम्प्रदाय के समान ही हैं।58
बौद्ध संघ में भी भिक्ष-भिक्षणियों के लिए यात्रा सम्बन्धी कुछ नियम अवश्य बनाए गए हैं जो जैन धर्म से किंचित समानता रखते हैं तथा किंचित भिन्न हैं। पातिमोक्ख, चुलवग्ग आदि के अनुसार बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणी के लिए