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________________ 334...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन 3. साँप आदि के द्वारा डसने की या शेर-चीते आदि के द्वारा भक्षण करने की भी सम्भावना रहती है, इसलिए रात्रि में विहार नहीं करना चाहिए। जैनाचार्यों ने भिक्ष के लिए रात्रि में आहारार्थ जाने का भी निषेध किया है, क्योंकि रात्रि में गोचरी हेतु गमनागमन करने पर षटकायिक जीवों की विराधना होती है, उनकी विराधना से संयम की विराधना होती है और संयम की विराधना से आत्म विराधना होती है। इसके अतिरिक्त रात में आते-जाते हुए चोर समझकर पकड़े जा सकते हैं, गृहस्थ के घर जाने पर वहाँ अनेक प्रकार की आशंकाएँ हो सकती हैं। अपवादत: यदि चलते हुए मार्ग विस्मृत हो जाये या मार्ग अधिक लम्बा निकल जाये आदि कारणों से स्थविरकल्पी भिक्षु सूर्यास्त के बाद भी योग्य स्थान पर पहँच सकता है और ठहरने के लिए मकान एवं जीव रक्षादि कारणों से पाटसंस्तारक आदि रात्रि में एवं विकाल में ग्रहण कर सकता है।54 सूर्यास्त से पूर्व मकान मिल जाए परन्तु आवश्यक पाट आदि गृहस्थ की दुकान से रात्रि के एक दो घंटे बाद भी मिलना सम्भव हो तो वह रात्रि में ग्रहण किया जा सकता है। परिस्थिति विशेष में ही इस अपवाद मार्ग का विधान है। पूर्वाचार्यों का चिन्तन अत्यन्त सूक्ष्म रहा है कि उन्होंने रात्रि या सन्ध्या में मल-मूत्र विसर्जन के स्थान पर भी अकेले मुनि को जाने का निषेध किया है। किसी साधु को मल-मूत्र विसर्जन के लिए जाना आवश्यक हो तो वह रात्रि में एक या दो साधुओं के साथ ही उपाश्रय से बाहर जाये।55_ ___ एकाकी गमन करने पर निम्न दोषों की संभावनाएँ बनती हैं- यदि आने में विलम्ब हो तो अनेक आशंकाएं पैदा हो सकती हैं 1. प्रबल मोह के उदय से या स्त्री उपसर्ग से पराजित होकर अकेले भिक्षु का ब्रह्मचर्य खंडित हो सकता है 2. सर्प आदि जानवर काट खाये, मूर्छा आ जाये या कोई टक्कर लग जाये तो वह कहीं गिर सकता है 3. अकेला देखकर ग्राम रक्षक आदि पकड़ सकते हैं एवं मारपीट कर सकते हैं 4. स्वयं भी कहीं भाग सकता है 5. आयु समाप्त हो जाए तो उसके शान्त होने की दीर्घ समय तक किसी को जानकारी भी नहीं हो पाती है- इत्यादि कारणों से रात्रि में अकेले भिक्षु को उपाश्रय की सीमा से बाहर नहीं जाना चाहिए। मल-मूत्र आदि शरीर के स्वाभाविक वेग हैं, इन्हें रोकना प्राणघातक बन सकता है। मात्र इस दृष्टि से ही रात्रि में बाहर जाने का विधान है।
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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