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326... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
कोई सदस्य मुनि जब, जहां असहिष्णु हो जाये, तो उसके अनुरूप तुरन्त उपकार करते हैं, कष्ट दूर करने का प्रयास करते हैं। क्षुधा से पीड़ित होने पर आहार और तृषा से व्याकुल होने पर पानी लाकर देते हैं। मार्ग में थकने पर उनकी विश्रामणा करते हैं। यदि कोई साधु स्वयं के उपकरणों को लेकर चलने में असमर्थ हो जाये या शरीर से असक्षम हो जाये तो उसके उपकरणों को वृषभ मुनि लेकर चलते हैं। इस प्रकार वृषभ मुनि स्वयं की शक्ति का गोपन न करते हुए मृग परिषद्, सिंह परिषद् और वृषभ परिषद् - तीनों प्रकार के मुनियों का उपकार करते हैं। इसी के साथ चोर आदि का भय होने पर वृषभ मुनि स्वर भेद और वर्ण भेद करने वाली गुटिका के द्वारा स्वर और वर्ण भेद करके या वेश बदलकर या आरक्षक होकर साधु-साध्वियों की सुरक्षा करते हैं।
इस विवरण से स्पष्ट होता है कि प्रत्येक समुदाय एवं गच्छ में वृषभ मुनि अवश्य होने चाहिए।
निष्पत्ति - वर्तमान में गीतार्थ मुनियों की संख्या नगण्य होती जा रही है। ऐसी स्थिति में विहारस्थ साधु-साध्वियों का संरक्षण किस प्रकार किया जा सकता है यह विचारणीय है। सामान्य रूप से पद-यात्रा का क्रम निम्न प्रकार से रखा जाये तो कुछ सीमा तक सुरक्षा सम्भव है
सबसे पहले अगीतार्थ मुनि चलें, फिर आचार्य चलें, फिर बलशाली युवा साधु चलें अथवा गीतार्थ हो तो बलिष्ठ साधु गुरु के आगे एवं उनके पार्श्व में चले और गीतार्थ सबसे पीछे चले ।
असमर्थ या असहिष्णु मुनि आगे चले तो उनकी सार-संभाल सम्यक प्रकार से की जा सकती है अन्यथा पीछे रहने पर चक्कर आदि आ जाये तो उन्हें कौन संभालेगा ? आज परिस्थितियाँ बदल गई हैं। वाहनों की संख्या दिनप्रतिदिन बढ़ती जा रही है । इस कारण दुर्घटनाएँ भी बढ़ रही हैं। ऐसी स्थिति में विहार मर्यादा का विशुद्ध पालन दुर्भर- सा हो गया है तब भी अगीतार्थ मुनि आगे चलें और गीतार्थ या बलिष्ठ मुनि पीछे चलें तो दुर्घटनाओं से बचा जा सकता है। वे पृष्ठ भाग में चलते हुए सामने की स्थिति का पूर्ण ख्याल रख सकते हैं।