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________________ विहारचर्या सम्बन्धी विधि - नियम... 317 देश में नदी के पानी से धान्य की उत्पत्ति होती है । द्रविड़ देश में तालाब के पानी से और उत्तरापथ में कूप के पानी से सिंचाई होती है। इस तरह और भी अन्यअन्य प्रकार के ज्ञान द्वारा जनपद की परीक्षा लेता है। मथुरा देश में व्यापार के द्वारा जीविका चलाई जाती है । सिन्धु देश में दुर्भिक्ष होने पर मांस के द्वारा निर्वाह किया जाता है। तोसली और कोंकण देश के वासी पुष्प - फल भोगी होते हैं। पाद विहारी मुनि विस्तीर्ण और संकीर्ण क्षेत्रों को जान लेता है। वह जनपद के आचार को जान लेता है । जैसे सिन्धु देश में मांसाहार अगर्हित माना जाता है। वह यह भी जान लेता है कि अमुक क्षेत्र स्वाध्याय और संयम साधना के लिए हितकारी है, अमुक क्षेत्र दानी श्रावकों से समाकुल है, अमुक क्षेत्र में भिक्षा सुलभकारी है तथा अमुक क्षेत्र वर्षाकाल और ऋतुबद्धकाल के योग्य है। 15 इस तरह शास्त्रीय विहार करने से साध्वाचार के साथ-साथ ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार - इन पंचाचारों का भी सम्यक परिपालन होता है। इससे अन्य प्रान्तीय वासियों को बोधिलाभ होने की भी संभावना रहती है। तद्देशीय भाषा में कुशल हो जाने पर धर्म प्रभावना में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। विहारचर्या के लाभ भगवती आराधना के मतानुसार अनेक देशों में परिभ्रमण करने से क्षुधा परीषह आदि का पालन होता है, मुनियों के भिन्न-भिन्न आचार का ज्ञान होता है और विविध भाषाओं में तात्त्विक सिद्धान्तों के प्रतिपादन का चातुर्य प्राप्त होता है। एक स्थान के प्रति ममत्व नहीं रहता। संविग्नतर साधु, प्रियधर्मतर साधु एवं अवद्यभीरुतर साधु- इन तीन प्रकार के मुनियों को देखकर सतत विहारचर्या करने वाले साधु के चित्त में भी अतिशय धर्मानुराग होता है और उसमें विशेष रूप से स्थिर धर्म को धारण करने वाला होता है। अनियतवास से परोपकार होता है अर्थात विशिष्ट साधुओं को देखकर सामान्य साधु भी विशिष्ट बनते हैं। अनियत विहारी मुनियों के उत्कृष्ट होने से उन्हें देखकर अन्य मुनि भी प्रशस्त चारित्री, योगधारी एवं शुभ लेश्यावान होते हैं।16 मूलाचार के उल्लेखानुसार विहारशील श्रमण के परिणाम विशुद्ध होते हैं। वे उपशान्तकषायी, दैन्यभाव रहित एवं उपेक्षा बुद्धियुक्त होने से कष्टसहिष्णु होते
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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