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314...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन विहार करने वाले मुनि और (ii) गच्छनिर्गत- जिनकल्पिक, प्रतिमाधारी, यथालंदिक और परिहार विशुद्धि तप के धारक साधु गच्छ से विधिपूर्वक निर्गमन कर अपने-अपने आचार के अनुसार विचरण करते हैं। इनका विहार भी दो प्रकार का बतलाया गया है- (i) गीतार्थ विहार- बहुश्रुत मुनि का विहार और (ii) गीतार्थ मिश्रविहार- बहुश्रुत के साथ या उनकी निश्रा में विहार करने वाले मुनि।1० __वर्तमान में गच्छनिर्गत (जिनकल्पिक आदि) विहारी के अतिरिक्त शेष सभी प्रकार के विहार प्रचलित हैं। विहार के अन्य प्रकार
विहार के अन्य दो प्रकार भी निर्दिष्ट हैं
1. स्थिरवास (नौ कल्पी विहार)- जैन मुनि दो स्थितियों में एक जगह पर लम्बे समय तक रुक सकते हैं- (i) जंघाबल क्षीण होने पर अर्थात शारीरिक शक्ति से हीन अथवा वृद्धावस्था के आ जाने पर और (ii) शासन सेवा, गच्छ सेवा आदि की सम्भावनाएँ होने पर। इसके सिवाय प्राणघातक रोगोपचार हेतु एवं विशिष्ट ज्ञानार्जन हेतु भी एक स्थान पर ठहर सकते हैं। यह अपवाद मार्ग है। उत्सर्गत: साधु के लिए नवकल्पी विहार करने का प्रावधान है। वर्षावास के चार महीनों के बाद का विहार एक कल्प, शेष आठ मास में प्रत्येक महीने के बाद का विहार = आठ कल्प, इस तरह साधु नवकल्पी विहार करते हुए चारित्र धर्म की परिपालना करें। साध्वी के लिए दो-दो मास के अन्तराल से विहार करने का नियम है। इस तरह साध्वी पंचकल्पी विहार करें।11 ज्ञातव्य है कि पुरुष की अपेक्षा स्त्री की शारीरिक आदि परेशानियाँ अधिक होती हैं, एतदर्थ साध्वी का स्थिरकाल अपेक्षाकृत दुगुना रखा गया है।
दशवैकालिक चूलिका में यह भी कहा गया है कि जिस गाँव या स्थान में मुनि उत्कृष्ट अवधि तक रह चुका हो यानी वर्षावास के चार महीने और शेष काल का एक महीना ऐसे पांचमास एक साथ रह चुका हो वहाँ दो वर्ष के पहले न जायें और न रुकें।12
वर्तमान में नवकल्पी एवं पंचकल्पी विहार का नियम गौण होता जा रहा है। कुछ साधु-साध्वी मन्दिर निर्माण, जीर्णोद्धार आदि के निमित्त से तो कुछ गुरु मन्दिर, उपाश्रय आदि के प्रयोजन से और कुछ शीत-ग्रीष्म आदि की