________________
312... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
के द्वारा वसति, गाँव, नगर, गण, उपकरण और श्रावक समूह इन सभी के प्रति ममत्वरहित होकर रहना अनियत विहार है | 4
दशवैकालिक चूर्णि के अनुसार सदैव एक स्थान पर नहीं रहना और शास्त्रविधि के अनुसार परिभ्रमण करते रहना अनियतवास कहलाता है।' इसी चूर्णि में अनिकेतवास, समुदान चर्या, अज्ञात कुल में भिक्षा ग्रहण, एकान्तवास, अल्प उपकरण रखना और क्रोध नहीं करना, इन्हें प्रशस्त विहारचर्या कहा गया है।
विहार के प्रकार
व्यवहारभाष्य में विहार के दो प्रकार निर्दिष्ट हैं- 1. द्रव्य और 2. भाव। 1. द्रव्यविहार - आहार, उपधि आदि द्रव्यों की सम्प्राप्ति के लिए अगीतार्थ (सामान्य मुनि) और पार्श्वस्थ (शिथिलाचारी मुनि) के द्वारा पद-यात्रा या परिभ्रमण करना द्रव्य विहार है। उपयोगशून्य मुनि का गमनागमन भी द्रव्य विहार है। जो साधु-साध्वी किसी मनमुटाव के कारण गुरु पृथक् विचरण करते हैं उनकी विहार यात्रा भी द्रव्य विहार है।
2. भावविहार - यह विहार दो प्रकार का होता है- (i) गीतार्थ साधुओं का विहार और (ii) गीतार्थ निश्रित साधुओं का विहार । इन दो के सिवाय तीसरे प्रकार का विहार नहीं होता है। भाव विहार के भी दो प्रकार हैं(i) असमाप्तकल्प- जिस मुनि के पास पूर्ण सहयोग न हो, उसका विहार असमाप्तकल्प विहार है। (ii) समाप्तकल्प - यह विहार भी दो प्रकार का कहा गया है जघन्य - तीन गीतार्थ मुनियों का विहार और उत्कृष्ट - बत्तीस हजार मुनियों का एक साथ विहार समाप्तकल्प विहार कहलाता है। 7
दिगम्बर के मूलाचार ग्रन्थ में विहार के दो भेद निम्न रूप से प्रतिपादित हैंगृहीतार्थ और अगृहीतार्थ । जीवादि पदार्थों के ज्ञाता मुनि द्वारा देशांतर में गमन करते हुए चारित्र का अनुष्ठान किया जाता है, वह गृहीतार्थ नाम का विहार कहलाता है तथा अल्पज्ञानी मुनि द्वारा चारित्र का पालन करते हु परिभ्रमण करना अगृहीतार्थ विहार है। 8
गीतार्थ मुनि का स्वरूप
बृहत्कल्पभाष्य के मतानुसार जिनकल्पिक, परिहार विशुद्धिक, प्रतिमा प्रतिपन्नक ( 12 प्रतिमाधारी) और यथालन्दिक (विशिष्ट साधना करने वाले) मुनि निश्चित रूप से गीतार्थ होते हैं तथा आचार्य