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वर्षावास सम्बन्धी विधि - नियम... 299
बन्धन, घर का उपरि भाग दर्भ से आच्छादित, दीवारें गोबर से लिप्त, द्वार कपाटों से संरक्षित, घर प्रमार्जित, अत्यन्त साफफ - सुथरे और धूप आदि सुगंधित द्रव्यों से सुवासित हो जाते हैं, भूमि को खोदकर जलाशय और नालियाँ बनाई जाती हैं। गृहस्थ ये कार्य अपने प्रयोजन से करते हैं। इसलिए मुनियों को इन स्थानों में रुकना कल्पता है। 18
विजयोदया टीका में लिखा गया है कि वर्षाकाल में स्थावर और जंगम सभी प्रकार के जीवों से यह पृथ्वी व्याप्त हो जाती है । उस समय भ्रमण करने पर महान असंयम होता है। वर्षा और शीत वायु से आत्मा की विराधना होती है। वापी आदि जलाशयों में गिरने का भय रहता है। जल आदि में छिपे हुए ठूंठ, कण्टक आदि से अथवा जल, कीचड़ आदि से कष्ट पहुँचता है। 19
कहने का आशय यह है कि वर्षाकाल में विहार करने पर अनेक तरह की बाधाएँ उपस्थित होती हैं इसलिए वर्षाकाल के चार माह तक एक स्थान पर स्थिर रहकर वर्षा योग धारण करना चाहिए ।
वर्षावास के शास्त्रोक्त नियम
वर्षावासी मुनियों के द्वारा निम्नोक्त मर्यादाओं का पालन निश्चित रूप से किया जाना चाहिए।
वसति ग्रहण सम्बन्धी - दशाश्रुतस्कन्ध की चूर्णि के मतानुसार वर्षावास स्थित साधु-साध्वी तीन उपाश्रय ग्रहण कर सकते हैं। इनमें से जो उपाश्रय प्रतिदिन उपयोग में आता हो और जीव संसक्त (सूक्ष्म जीव जन्तुओं की बहुलता वाला) हो तो उसकी बार-बार तथा असंसक्त हो तो दिन में तीन बार प्रतिलेखना करनी चाहिए। अन्य दो उपाश्रयों की प्रतिदिन प्रतिलेखना और तीसरे दिन पादपोंछन से प्रमार्जना करनी चाहिए | 20
वस्त्र अग्रहण सम्बन्धी - कल्पसूत्र के अनुसार वर्षावासी साधु-साध्वियों को उस काल में वस्त्र या पात्रादि ग्रहण करना नहीं कल्पता है, अन्यथा प्रायश्चित्त आता है। 21
भ्रमण सम्बन्धी - दशाश्रुतस्कन्ध की चूर्णि के अनुसार वर्षाकाल की आराधनार्थ स्थिर हुए मुनियों को औषधि, ग्लान, वैद्य आदि कारणों से चारपाँच योजन तक आना-जाना कल्पता है। वे इस मार्ग के बीच रह भी सकते हैं, किन्तु रात्रि नहीं बिता सकते । इसी प्रकार चारों दिशाओं में पाँच कोश तक