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अध्याय- 12
वर्षावास सम्बन्धी विधि-नियम
जैन धर्म में वर्षावास का अत्यन्त महत्त्व है। इसे आध्यात्मिक जागृति के महापर्व के रूप में मानते हैं। इसके माध्यम से स्व- पर कल्याण का उत्तम अवसर प्राप्त होता है। यही कारण है कि वर्षावास को मुनि चर्या का अनिवार्य अंग और महत्वपूर्ण योग माना गया है। इसे वर्षायोग और चातुर्मास भी कहा जाता है। श्रमण के दस स्थित कल्पों में अन्तिम पर्युषणाकल्प है, जिसके अनुसार वर्षाकाल के चार मास तक मुनियों को एक स्थान पर रहने का नियम हैं। वर्ष के बारह महीनों को छह ऋतुओं में विभाजित किया जा सकता है -
1. वसंत ऋतु (चैत्र वैशाख) 2. ग्रीष्म ऋतु (ज्येष्ठ-आषाढ़ ) 3. वर्षाऋतु (श्रावण-भाद्रपद) 4. शरद ऋतु (आश्विन - कार्तिक) 5. हेमन्त ऋतु (मार्गशीर्षपौष) और 6. शिशिर ऋतु (माघ - फाल्गुन)। प्राकृतिक दृष्टि से वर्ष को तीन भागों में विभाजित किया गया है -
1. ग्रीष्म - चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़ ।
2. वर्षा - श्रावण, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक ।
3. शीत- मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन ।
यद्यपि ग्रीष्म आदि ऋतुओं की अपेक्षा उक्त तीनों विभाजन चार-चार माह के हैं, किन्तु वर्षाकाल के चार महीनों का एकत्र नाम 'चातुर्मास', 'वर्षावास' आदि रूप में प्रसिद्ध है। 1
वर्षावास के विभिन्न अर्थ
वर्षावास का सामान्य अर्थ है - वर्षा सम्बन्धी चार महीनों में एक स्थान पर अवस्थित रहना। वर्षावास का दूसरा अर्थ - वर्षाकल्प, पर्युषणाकल्प, पर्युषणा की आचार मर्यादा आदि है।
वर्षावास - पर्युषणा का दूसरा नाम है। श्वेताम्बर आगमों में वर्षावास का वर्णन ‘पर्युषणाकल्प' के नाम से प्राप्त होता है । बृहत्कल्पभाष्य में इसे संवत्सर