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शय्यातर सम्बन्धी विधि - नियम... 287
उपसंहार
शय्यातर जैन मुनियों का सार्वकालिक आचार है । इस जंबूद्वीप के भरत, ऐरवत और महाविदेह - इन तीन क्षेत्रों में विचरण कर रहे सर्व साधु-साध्वियों के लिए शय्यातरपिंड ग्रहण करने का उत्सर्गत: निषेध है । यद्यपि मध्य के बाईस तीर्थंकरों और महाविदेह के तीर्थंकरों के लिए आधाकर्मी ( साधु के निमित्त बनाया) आहार लेने का निषेध नहीं है, किन्तु शय्यातरपिंड उनके लिए भी वर्जित माना गया है। सामान्यतया पूर्व कथित अपवादजन्य स्थितियों को बाधित कर अन्य किसी भी स्थिति में मुनि को शय्यातरपिंड ग्रहण करना नहीं कल्पता है। इसके निषेध के सामान्य कारणों का उल्लेख किया जा चुका है।
शय्यातर की मूल विधि सर्वप्रथम आचारचूला में प्राप्त होती है। इसमें शय्यातरपिण्ड ग्रहण से होने वाले अनाचार से बचने के लिए साधु-साध्वियों को निर्देश दिया गया है कि वे जिसके स्थान या मकान पर ठहरें उसका नाम और गोत्र पहले से ज्ञात कर लें ताकि आहार के लिए जाने वाले साधु और अन्य आगन्तुक साधु भी शय्यातर के घर का आहार लेने से बच सकें। 19 तदनन्तर निशीथसूत्र में शय्यातरपिंड सम्बन्धी दोषों के प्रायश्चित्त बताए गये हैं। 20 बृहत्कल्पसूत्र±1 एवं बृहत्कल्पभाष्य 22 में इसका अति विस्तृत निरूपण उपलब्ध होता है। इससे परवर्ती प्रवचनसारोद्धार, विधिमार्गप्रपा आदि में सामान्य वर्णन ही प्राप्त होता है। 23 इस आधार पर कहा जा सकता है कि शय्यातरपिंड सम्बन्धी मूल चर्चा आचारांग आदि आगम ग्रन्थों एवं टीकाओं में स्पष्ट रूप से है ।
जैन धर्म की प्रचलित परम्पराओं में इस सम्बन्ध में श्वेताम्बर मूलक धाराओं में परस्पर कोई भेद नहीं है, यत्किंचित परिवर्तन काल प्रभाव से अवश्य आये हैं, वैदिक या बौद्ध परम्परा में इस सम्बन्ध में कोई उल्लेख देखने को नहीं मिलता है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि यह सर्व विरतिधर श्रमणश्रमणी वर्ग का औत्सर्गिक आचार है । शय्यातरपिंड के ग्रहण और अग्रहण का क्रम वर्षावास को बाधितकर नित्य प्रति चलता रहता है तथा आज भी इस क्रियानुष्ठान की परिपाटी श्वेताम्बर की सभी परम्पराओं में विद्यमान है।
सन्दर्भ-सूची
1. बृहत्कल्पभाष्य, 3521-3524
2. वही, 3525-3526
3. प्रवचनसारोद्धार, 800-801 की टीका