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________________ अध्याय-11 शय्यातर सम्बन्धी विधि-नियम जैन दर्शन एक अत्यंत सूक्ष्मदर्शी दर्शन है। यहाँ प्रत्येक क्रिया एवं आचार का निरूपण दीर्घ दृष्टि से सूक्ष्मतापूर्वक किया गया है। श्रमण एवं श्रावक के सम्बन्धों को मर्यादित एवं चिरस्थायी बनाए रखने के लिए कुछ मर्यादाएँ आवश्यक है। विचरण करते हुए मुनि जिस स्थान का उपयोग विश्राम करने या ठहरने के लिए करते हैं उसका ग्रहण आज्ञापूर्वक करना आवश्यक है। जो गृहस्थ या स्वामी उसके प्रयोग की आज्ञा प्रदान करता है वह शय्यातर कहलाता है। किसी स्थान का कोई मालिक न हो तो देवता आदि की आज्ञा से मुनिजन उस का प्रयोग करते हैं। इससे मुनि जीवन में स्वेच्छा वृत्ति का पोषण नहीं होता तथा आश्रयदाता गृहस्थ भी साधुओं के आने पर भी कई चिंताओं से मुक्त रहता है। शय्यातर शब्द की अर्थ मीमांसा आगमिक परिभाषा के अनुसार जो गृहस्थ साधु-साध्वी को स्थान या उपाश्रय प्रदान करता है वह ‘शय्यातर' कहलाता है। शय्यातर का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है ‘शय्या तरति-ददातीति शय्यातरः' अथवा 'शय्यादानेन तरति भवसागरमिति शय्यातरः' अर्थात जो शय्या देता है वह शय्यातर है अथवा शय्यादान के द्वारा जो भवसागर से तिर जाता है वह शय्यातर है।। बृहत्कल्पसूत्र में शय्यातर के समानार्थक पाँच नाम वर्णित हैं - 1. सागारिक - आगार शब्द घर का पर्यायवाची है। घर या वसति का स्वामी सागारिक कहलाता है और सागारिक मनुष्य ही शय्यातर कहलाता है। 2. शय्याकार - जो शय्या-आश्रयस्थल का निर्माण करता है। 3. शय्यादाता - जो शय्या यानी वसति देता है। 4. शय्यातर - जो वसति का संरक्षण करने में समर्थ है अथवा साधुओं की आपदाओं से रक्षा करने में समर्थ है अथवा शय्या के दान से संसार-प्रवाह को तर जाता है। 5. शय्याधर- जो जीर्ण-शीर्ण वसति का लेपन आदि करवाता है अथवा शय्यादान द्वारा स्वयं को नरक से बचा लेता है।
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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