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संस्तारक ग्रहण सम्बन्धी विधि-नियम...273 संस्तारक ग्रहण की अनिवार्यता वैकल्पिक हो जाती है। यहाँ यह विवेक रखना आवश्यक है कि जहाँ आस-पास का स्थान खुला हो, वृक्ष आदि की अधिकता हो, पानी-कीचड़ आदि की बहुलता हो, उपाश्रय नीचे वाले भाग में हो तो जीव विराधना की संभावना होने से पाट आदि का ग्रहण करना जरूरी है।
इस तरह हम पाते हैं कि संस्तारक सम्बन्धी विधि नियमों में कई परिवर्तन आए हैं। ___यदि जैन धर्म और इतर धर्म के परिप्रेक्ष्य में इस विधि का तुलनात्मक अवलोकन किया जाए तो पाते हैं कि जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा के सभी साधु-साध्वियों के लिए संस्तारक सम्बन्धी विधि-नियम एक समान हैं। देशकालगत स्थितियों के प्रभाव से कुछ परिवर्तन भी आया हो तो वह अलग बात है। परवर्ती काल में आये परिवर्तन क्रम में यह कहा जा सकता है कि पाट आदि के स्थान पर संथारा (ऊनी वस्त्र) और उत्तरपट्ट (सूती वस्त्र) का उपयोग शुरू हुआ है।
बहुधा पाट आदि के होने पर भी संथारा आदि का उपयोग कर लिया जाता है, जबकि आगम पाठ में बिछाने के रूप में पाट-तृणादि के ही उल्लेख मिलते हैं।
दिगम्बर परम्परा में मूल विधि के अनुसार पाट-तृणादि का उपयोग अब भी किया जाता है। ये अचेल (निर्वस्त्र) रहते हैं, अत: उनके लिए संथाराउत्तरपट्ट रूप वस्त्रद्वय की कल्पना कैसे संभव है?
वैदिक साहित्य में इस विषयक पृथक रूप से तो कोई जानकारी प्राप्त नहीं है, किन्तु मनुस्मृति में इतना उल्लेख है कि 'संन्यासी को खाली चबूतरे पर सोना चाहिये।' इससे ध्वनित होता है कि जैन परम्परा की भाँति हिन्दू परम्परा में भी संन्यासी को सूखदायिनी शय्या का उपयोग नहीं करना चाहिए।17
निष्कर्ष रूप में संस्तारक गवेषणा एवं संस्तारक ग्रहण एक आगमिक प्रक्रिया है। इस विधि का यथार्थ रूप से पालन किया जाये तो यह लौकिक एवं लोकोत्तर दोनों दृष्टि से उपादेय है।