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वसति (आवास) सम्बन्धी विधि-नियम...245 5. श्वापद संसक्त-सिंह, व्याघ्र आदि से युक्त स्थान में रहने पर सदैव व्याकुलता बनी रहती है, जिससे अभय की साधना नहीं हो सकती।
6. पशु संसक्त-गाय, भैंस, बैल आदि पशुओं से युक्त स्थान में रहने पर अनेक प्रकार की झंझटें खड़ी हो सकती हैं। अपरिचित वेश को देखकर पशु भड़क सकते हैं, बिदक सकते हैं, सींग आदि से साध को चोट पहँचा सकते हैं। यदि अविवेकी पुरुष पशुओं को भूखा-प्यासा रखे, समय पर चारा-पानी न दे या उन्हें मारे-पीटे तो ऐसी स्थिति में साधु के मन में गृहस्थ के प्रति आक्रोश या रोष पैदा हो सकता है। पशुओं की काम क्रीड़ा देखने से ब्रह्मचर्य में हानि हो सकती है।
7. गृहस्थ या पशु की खाद्य सामग्री से संसक्त-ऐसे स्थान में रहने पर गृहस्थ के घर में रखी हुई विविध खाद्य सामग्री को देखकर नवदीक्षित या ग्लान साधुओं के मन में उनके प्रति अभिलाषा उत्पन्न हो सकती है।
8. गृहस्थ से संसक्त-ऐसे स्थान में रहने से निम्नोक्त दोष लगते हैं
• सामान्य तौर पर गृहस्थों और जैन श्रमणों के आचार-व्यवहार और क्रियाकलाप भिन्न-भिन्न होते हैं। अतएव एक स्थान पर रहने से परस्पर एकदूसरे की पृथक-पृथक सामाचारी को देखकर दोनों के मन में आशंकाएँ पैदा हो सकती हैं।
• गृहस्थ के मकान में रहने पर गृहस्थ-परिवार के साथ निकट सम्पर्क स्थापित हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप चारित्र धर्म में अनेक तरह से बाधा और क्षति की सम्भावना रहती है।
• गृहस्थ संसक्त स्थान में रहने से अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रहादि महाव्रतों में भी दोष लगने की प्रबल सम्भावना रहती है। साधु का मन चंचल और अस्थिर बन सकता है, पूर्व अवस्था के संस्कार जागृत हो सकते हैं तथा मन में तरहतरह के संकल्प-विकल्प पैदा हो सकते हैं। __ • साधु अकस्मात बीमार हो जाये तो गृहस्थ द्वारा सेवा, शुश्रूषा एवं उपचार करने-कराने पर षट्काय जीवों की विराधना होती है।
• गृहस्थ के पारिवारिक सदस्यों और दास-दासियों में कलह या झगड़ा हो जाये तो साधु के चित्त में संक्लेश पैदा हो सकता है।