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________________ पात्र ग्रहण सम्बन्धी विधि- नियम... 235 आदि साधुओं के कार्य में व्यस्त हों तो अन्य साधु को उन पात्रों की सार-संभाल करने का अनुरोध करें। दूसरा लेप 'तज्जात' नाम का बतलाया गया है । 'तत्र जात इति तज्जातः ' इस व्युत्पत्ति के अनुसार गृहस्थ के तेल भरने के बरतन के ऊपर चिकनाई में गाढ़ापन आ गया हो तो उस मैल को 'तज्जात' लेप कहा गया है। इस लेप से पात्र पर लिपाई करना, फिर अंगुलियों से घिसकर उसे कोमल बनाना, फिर कांजी-चावल के मांड से धोना इसकी यह विधि है । तीसरे लेप का नाम ‘युक्ति जात' है। 'योजनं युक्ति' इस व्युत्पत्ति से यह लेप पत्थर आदि के टुकड़े को पीसकर एवं उसमें तेल आदि मिलाकर बनाया जाता है। इस लेप का संग्रह करना पड़ता है, इसलिए इस लेप का निषेध किया गया है। खण्डित पात्र का बंधन - जो पात्र टूट गये हों, उन्हें जोड़ने की पद्धति भी तीन प्रकार की होती है- 1. मुद्रिका बंध 2. नावाबंध और 3. चोर बन्ध। टूटेफूटे पात्र के दोनों तरफ अर्थात आमने-सामने छिद्र करके उसमें धागा डालकर, दोनों छोरों की गाँठ बाँधना 'मुद्रिका बंध' है। नावाबंध दो तरह का होता है। धागे को गोमूत्रिका के आकार से डालकर गांठ लगाना अथवा धागे को चोकड़ी के आकार से डालकर गांठ लगाना ‘नावाबंध’ है। जोड़ने योग्य धागे को गुप्त रखना 'चोर बन्ध' है। चोरबन्ध से पात्र के जर्जरित होने का भय रहता है, इसलिए इसका निषेध किया गया है। लेप उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य तीन प्रकार का होता है। तिल के तेल का लेप उत्कृष्ट, अलसी के तेल का लेप मध्यम और सरसों के तेल का बनाया गया लेप जघन्य कहलाता है । निष्पत्ति-प्राचीन सामाचारी के अनुसार पात्र लेप तीन प्रकार से किया जाता है। उक्त त्रिविध लेप निर्दोष, प्रासुक, एषणीय और सर्वत्र सुलभ होते हैं अतएव शास्त्र विहित हैं। इनमें से तीसरा लेप एवं तीसरा बंध कारण विशेष से वर्जित भी माना गया है। वर्तमान सामाचारी के अनुसार देखा जाये तो पात्र लेप के ये तीनों प्रकार प्रचलन में नहीं हैं। आजकल बाजार में उपलब्ध रंग के डिब्बों का लेप किया जाता है जो निश्चित रूप से अशुद्ध, अप्रासुक और अनैषणीय हैं और प्रायः साधु के निमित्त खरीदकर मंगवाया जाता है। ध्यातव्य है कि
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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