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________________ वस्त्र ग्रहण सम्बन्धी विधि-नियम...223 • नीचे सूती वस्त्र और ऊपर ऊनी वस्त्र ओढ़ने पर शीत से भी बचाव होता है, अत: ऊनी वस्त्र ऊपर और सूती वस्त्र भीतर ओढ़ना चाहिए। वर्तमान सन्दर्भ में वस्त्र ग्रहण विधि की उपादेयता जैन परम्परा में सचेलक एवं अचेलक दोनों मुनियों की चर्चा प्राप्त होती है। सचेलक मुनि किस प्रकार वस्त्र ग्रहण करें? इसका उल्लेख आगम ग्रन्थों में मिलता है। यदि इस विधि की उपयोगिता वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखी जाए तो निम्न तथ्य परिलक्षित होते हैं मुनि के द्वारा पूछताछ एवं जानकारीपूर्वक वस्त्र ग्रहण करने से गृहस्थ के मन में साधुओं के प्रति अहोभाव पैदा होता है तथा उनकी निर्लोभता एवं शुद्ध चर्या को देखकर वह भावोल्लासपूर्वक द्रव्य प्रदान करता है। मर्यादित वस्त्र रखने से साधु को उन्हें संभालने, सहेजकर रखने एवं उसमें कीड़ा आदि लगने का भय नहीं रहता। साथ ही उनके संयम, समय एवं स्वाध्याय में हानि नहीं होती। मुनि की अल्पपरिग्रही निरासक्त बुद्धि देखकर लोगों के हृदय में जिन धर्म के प्रति आस्था बढ़ती है। वस्त्र ग्रहण में भी यथाकृत या अल्प परिकर्मी वस्त्र ग्रहण करने से मुनि अपनी आवश्यकता पूर्ति के साथ समय प्रबंधन का भी ध्यान रखता है। गुरु आज्ञापूर्वक वस्त्र ग्रहण करने से समाज में बड़ों के प्रति आदर-सत्कार के भाव बढ़ते हैं। पुराना या उपयोग किया हुआ वस्त्र लेने से उसके प्रति आसक्ति नहीं पनपती। साधु के इस मर्यादित जीवन को देखकर आज जो नित नए वस्त्र धारण की परम्परा चल रही है उस पर नियंत्रण हो सकता है। ___ यदि वर्तमान समस्याओं के संदर्भ में वस्त्र ग्रहण विधि की प्रासंगिकता पर विचार किया जाए तो स्पष्ट होता है कि याचनापूर्वक वस्त्र धारण करने से अहंकार आदि के भाव नष्ट होते हैं तथा उनके प्रति आसक्ति या ममत्व भाव जागृत नहीं होता। इसके साथ ही आज साधु वर्ग के प्रति समाज में जो गलत धारणाएँ बन रही है उसका भी निर्मूलन होता है। क्रमपूर्वक वस्त्र आदि प्रदान करने से बड़ों-छोटों में कोई विवाद उत्पन्न नहीं होता। कई पारिवारिक लड़ाइयाँ इसीलिए उत्पन्न होती हैं कि वस्तु वितरित करते समय छोटे-बड़ों का ध्यान नहीं रखा गया, ऐसी समस्याओं से बचा जा सकता है। पूछताछ एवं दाता की इच्छापूर्वक वस्त्र ग्रहण करने से तदनन्तर कोई समस्या उत्पन्न नहीं होती। वैसे ही शोधपूर्वक वस्त्रादि खरीदने से ठगी की संभावनाएँ कम हो जाती हैं।
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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