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________________ मंगलनाद भारतीय संस्कृति में संन्यास की परम्परा बहुत गरिमापूर्ण रही है। इसे जीवन के उदात्रीकरण की प्रक्रिया माना गया है। साधारण साधारण और महान से महान सभी व्यक्तियों के लिए संयम आवश्यक माना गया है। शास्त्रों में कहा है- 'दीक्षा तु व्रत संग्रहः अर्थात व्रतों के कवच को धारण करने का नाम है दीक्षा । संयम ग्रहण के हेतु बताते हुए कहा है "असासय दट्टु इमं विहारं, बहु अन्तशयं न यं दीहमाउं । तम्हा गिहंसि न रहूं लहामो, आमंतयामो चरिस्सामु मोणं ।। अशाश्वतता, बहुविघ्नता और आयुष्य की अल्पता गृह त्याग के तीन मुख्य कारण हैं। संयम ग्रहण के इसी महत्त्व को वर्धमान रखने हेतु सभी तीर्थंकर परमात्मा तद्भव मोक्षगामी होते हुए भी श्रमणत्व को अंगीकार करके अपनी साधना की परिसमाप्ति करते हैं। जैनाचार्यों ने श्रमण के विविध गुणों के आधार पर उसे विविध उपमाओं से उपमित किया है। वस्तुतः श्रमण जीवन एक उच्चस्तरीय यात्रा है । इस यात्रा पथ का सम्यक् निर्वहन करने हेतु साधक को अनेकविध आचार संहिताओं का अनुपालन करना होता है तभी वह इस यात्रा की मंजिल (मोक्ष पद) समुपलब्ध कर सकता है। प्रतिलेखना, समिति, भावना, परीषह, अनाचीर्ण, वस्त्र याचना आदि मात्र मुनि जीवन के आवश्यक क्रियाकलाप ही नहीं है, वरन अंत:करण की शुद्धि एवं चरम लक्ष्य की प्राप्ति के अनन्यभूत कारण भी हैं। सुयोग्या साध्वी सौम्यगुणा जी ने मुनि जीवन विषयक आवश्यक आचार विधियों जैसे स्थण्डिल, वर्षावास, विहारचर्या, अवग्रह, प्रमार्जन आदि का सहेतुक विवेचन किया है। इसी के साथ श्रमणाचार सम्बन्धी विधि-नियमों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उनकी उपयोगिता एवं प्रचलित परम्पराओं के सन्दर्भ में उनका तुलनात्मक पक्ष भी उद्घाटित किया है। इससे यह रचना श्रमण एवं ब्राह्मण दोनों ही परम्पराओं में सदैव सम्मान्य रहेगी। मैं सौम्याजी की सृजनशीलता, स्वाध्याय निष्ठता एवं साहित्य सेवा की हार्दिक अनुमोदना करते हुए उनके श्रेयस् अभ्युदय की आत्मीय प्रार्थना करती हूँ । मंगलाकांक्षिणी आर्या शशिप्रभा श्री
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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