SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 246
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 184...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन यदि वसति अशुद्ध हो तो स्वाध्याय आदि करना नहीं कल्पता है। अशुद्ध वसति में स्वाध्यायादि करने पर महापाप का आस्रव होता है। यहाँ वसति शुद्धि से तात्पर्य है कि मुनियों के निवास स्थान के चारों ओर सौ-सौ हाथ की भूमि तक मृत कलेवर, हड्डियाँ, रक्त के छींटे आदि अचिमय पदार्थ न हों। वसति शुद्धि करते समय किसी प्रकार की अशुचि दिख जाए तो उसे दूर कर देनी चाहिए अन्यथा वह वसति अशुद्ध कहलाती है। उस अशुद्ध वसति में आगमसूत्रों का स्वाध्याय करना किसी भी स्थिति में कल्प्य नहीं है इसलिए वसति प्रमार्जक मुनि अत्यन्त जागरूक होना चाहिए। आचार्य-उपाध्याय आदि पदस्थ मुनियों के द्वारा वसति शोधन शोभा नहीं देता है, इसलिए वसति प्रमार्जन हेत गीतार्थ मुनियों का उल्लेख प्राप्त होता है। अपवादत: वसति प्रमार्जन सामान्य मुनि भी कर सकते हैं। वसति प्रमार्जना विधि- प्रतिदिन वस्त्रादि की प्रतिलेखना करने के पश्चात दण्डासन के द्वारा वसति की प्रमार्जना की जाती है। इसमें मुख्यतया पिछले दिन जहाँ शयन किया हो, जिन-जिन स्थानों का उपयोग किया हो तथा जो स्थान स्वाध्याय-ध्यान आदि के योग्य हों उन सभी जगहों का काजा (कचरा) निकालें। यहाँ काजा से तात्पर्य दण्डयुक्त रजोहरण (दण्डासन) के द्वारा निर्दिष्ट स्थानों की उपयोग पूर्वक सफाई करना है। वसति प्रमार्जन करने के पश्चात इकट्ठे कचरे का सम्यक निरीक्षण करें। यदि उसमें जूं, चींटी आदि सूक्ष्म जीव दिख जायें तो उन्हें सुरक्षित स्थान पर रखें। जूं हो तो मलिन वस्त्र पर रखें और मकोड़ा हो तो लकड़ी पर रखें। फिर मृत जीवों की संख्या गिनकर तदनुसार आलोचना करें, फिर काजे को सुपड़ी में लेकर जहाँ लोगों के पाँव न पड़े ऐसी जगह परिष्ठापित करें। उसके बाद सभी साधु स्थापनाचार्य के समक्ष एक खमासमणपूर्वक वन्दन कर ईर्यापथिक प्रतिक्रमण करें। यहाँ काजे (कचरे) का विसर्जन करने हेतु बहिर्गमित मुनि के द्वारा ही वसति के चारों ओर सौ-सौ हाथ की भूमि का निरीक्षण कर लिया जाए। उसके अतिरिक्त अन्य मुनि भी वसति भूमि के शोधन हेतु जा सकते हैं। यह क्षेत्र शुद्धि स्वाध्याय करने के निमित्त की जाती है।58 तदनन्तर वसति प्रमार्जक साधु गुरु के समक्ष एक खमासमण देकर कहे'इच्छाकारेण संदिसह भगवन्! वसति पवेउं?' गुरु कहें- 'पवेयह।' शिष्य 'इच्छं" कहे।
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy