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प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना सम्बन्धी विधि-नियम...181 की वसति में भी बार-बार आवागमन संभव नहीं होता, अत: उनके लिए स्थापनाचार्य का होना अत्यावश्यक है। ___इस सम्बन्ध में एक कारण यह भी मान्य है कि जब आचार्य संघीय या स्वकीय कार्यों में संलग्न हों, उस समय आवश्यक क्रियाओं की अनुमति स्थापनाचार्य के सम्मुख ली जा सकती है और वह उचित भी है। इस तरह स्थापनाचार्य रखने के अनेक प्रयोजन स्पष्ट होते हैं। ____ मुनि जीवन के दैनिक विधि-विधान स्थापनाचार्य के सामने किये जाने चाहिए। इसका सर्वप्रथम उल्लेख 12वीं शती के तिलकाचार्यसामाचारी, सुबोधासामाचारी52 में प्राप्त होता है। उसके पश्चात विधिमार्गप्रपा आदि ग्रन्थों में यह वर्णन उपलब्ध है। विधिमार्गप्रपा में स्थापनाचार्य प्रतिष्ठाविधि का भी निर्देश है।54 तदनन्तर साधुविधिप्रकाश में स्थापनाचार्य प्रतिलेखनविधि भी प्राप्त होती है।55 इसमें भी इतना विशेष है कि तिलकाचार्य आदि सामाचारी ग्रन्थों में स्थापनाचार्य का उल्लेख योग विधि (आगम सूत्रों की अभ्याससाध्य विधियों) के सन्दर्भ में हुआ है।
जैनाचार में कुछ क्रियाएँ नन्दी रचना के समक्ष तो कुछ क्रियाएँ गुरु के सम्मुख करने का प्रावधान है। यह उल्लेख पन्द्रहवीं शती तक के ग्रन्थों में देखा जाता है। इससे अनुमान होता है कि संभवत: स्थापनाचार्य की अवधारणा 8वीं शती से पर्व अस्तित्व में आई होगी और उसका उपयोग प्रत्येक विधि-विधान के लिए नहीं किया जाता होगा। उपर्युक्त ग्रन्थों के अवलोकन से यह भी स्पष्ट होता है कि प्रतिलेखन, प्रतिक्रमण, लोचप्रवेदन, ईर्यापथिक प्रतिक्रमण आदि क्रियाएँ मध्यकाल (8वीं से 14वीं शती) तक गुरु के समक्ष ही की जाती थी। आजकल स्थापनाचार्य का उपयोग जिस रूप में किया जा रहा है वह उत्तरवर्ती अवधारणा मालूम होती है। वर्तमान में इसका उपयोग प्रत्येक विधि-विधान के लिए किया जाता है। ___यदि समीक्षात्मक पहलू से सोचा जाए तो वर्तमान युग की परिवर्तित स्थितियों में आत्मसाक्षीपूर्वक सम्पन्न की जाने वाली क्रियाओं के दृढ़ आलम्बन रूप में स्थापनाचार्य अत्यन्त प्रासङ्गिक हैं। यदि प्रचलित परम्पराओं की दृष्टि से देखें तो स्थापनाचार्य का उपयोग श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में ही होता है। स्थानकवासी, तेरापंथी एवं दिगम्बर परम्परा में स्थापनाचार्य रखने का कोई