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________________ 162... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन की परम्परा अर्वाचीन है), दण्डा, दण्डासन आदि की प्रतिलेखना निम्नोक्त दस बोल पूर्वक करनी चाहिए 1. सूत्र - अर्थ साचो सद्दहूं 2-4. सम्यक्त्व मोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय, मिश्रमोहनीय परिहरूं 5-7 कामराग, स्नेहराग, दृष्टिराग परिहरूं 8-10. सुदेव, सुगुरु, सुधर्म आदरूं। • स्थापनाचार्य की प्रतिलेखना तेरह बोल पूर्वक होती है। खरतरगच्छ परम्परा के अनुसार तेरह बोल निम्न हैं 1. शुद्ध स्वरूप धारे 2-4. ज्ञान, दर्शन, चारित्र सहित 5-7 सद्दहणा शुद्धि, प्ररूपणा शुद्धि, स्पर्शना शुद्धि सहित 8-10 पाँच आचार पाले, पलावे, अनुमोदे 11-13. मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति आदरे। तपागच्छीय परम्परा में स्थापनाचार्य की प्रतिलेखना निम्न तेरह बोल पूर्वक की जाती है 1. शुद्ध स्वरूप धारक गुरु 2. ज्ञानमय 3. दर्शनमय 4. चारित्रमय 5. शुद्ध श्रद्धामय, (6) शुद्ध प्ररूपणामय 7. शुद्ध स्पर्शनामय 8. पंचाचार पाले 9. पलावे 10. अनुमोदे 11. मनोगुप्ति 12. वचनगुप्ति 13. कायगुप्तिए गुप्ता। स्थापनाचार्य प्रतिलेखना के उक्त 13 बोलों में केवल शाब्दिक अन्तर ही है, अतः कोई भेद नहीं है। किसकी प्रतिलेखना किससे ? मुखवस्त्रिका, रजोहरण, दो निशीथिया (ओघारिया), चोलपट्ट, संथारा, उत्तरपट्ट, कंबली, सूती चद्दर, स्थापनाचार्य सम्बन्धी ऊनी कंबल खण्ड एवं मुखवस्त्रिकाएँ, कंदोरा - इन वस्त्रोपकरण की प्रतिलेखना चित्त व दृष्टि की एकाग्रता पूर्वक दोनों हाथों से की जाती है। रजोहरण डण्डी, रजोहरण डोरा एवं डण्डा की प्रतिलेखना एकाग्र दृष्टि से रजोहरण द्वारा की जाती है। पट्टा की प्रतिलेखना दृष्टि एवं दण्डासन के द्वारा की जाती है तथा स्थापनाचार्य की प्रतिलेखना एकाग्र दृष्टि सहित मुखवस्त्रिका से की जाती है। 10 किस वस्त्रोपकरण की कितनी बार प्रतिलेखना ? सामान्यतया मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना अनेक बार की जाती है, जैसे रात्रिक प्रतिक्रमण, दैवसिक प्रतिक्रमण, प्रातः कालीन प्रतिलेखन, उग्घाड़ापौरुषी, प्रत्याख्यान पारने से पूर्व, संथारा पौरुषी पढ़ने से पूर्व, पात्र प्रतिलेखन के पूर्व आदि। इस प्रकार
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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