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122... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
तदुपरान्त आज कहीं-कहीं अतिपरिचय आदि कुछ कारणों को लेकर विसांभोगिक साधु-साध्वियों के साथ भी एक मंडली में बैठकर आहार करना, वस्त्र-पात्र आदि उपकरणों का आदान-प्रदान करना, रजोहरण आदि उपकरण बनाकर देना, वस्त्र धोना - इत्यादि क्रियाकलाप देखे जाते हैं, जो आगम सम्मत नहीं हैं। हाँ! इतना अवश्य ध्यातव्य है कि उपसंपदा ग्रहण करने वाला भिक्षु विसांभोगिक के साथ स्वाध्यायादि आवश्यक कर्म कर सकता है।
दिगम्बर मुनि करपात्री एवं वस्त्र रहित होते हैं, अतः उनमें आहार आदि के आदान-प्रदान की संभावना नहीं होती हैं। यद्यपि आचार्य कुन्दकुन्द ने इस सम्बन्ध में दो प्रकार के मुनि बतलाये हैं- शुभोपयोगी और शुद्धोपयोगी। इनमें शुभोपयोगी श्रमण सराग चारित्र का धारक होता है । वह संयम साधना की दृष्टि से आचार्यादि को वन्दन करना, उनके लिए उठना-बैठना, ग्लानादि एवं पूज्यजनों की सेवा-शुश्रुषा करना, शिष्यों का ग्रहण करना, जिनपूजा का उपदेश देना-वगैरह व्यावहारिक प्रवृत्ति कर सकता है। जबकि शुद्धोपयोगी मुनि के लिए इस प्रकार का व्यवहार निषिद्ध है। 20
मूलाचार में भी इस विषय पर बल देते हुए कहा गया है कि गुणाधिक श्रमण, उपाध्याय, तपस्वी, शिष्य, साधुगण, कुल संघ और समनोज्ञ मुनियों पर किसी प्रकार की आपत्ति या उपद्रव आये तो वसति, स्थान, आसन तथा उपकरण इनका प्रतिलेखनपूर्वक उपकार करना चाहिए अर्थात इस सम्बन्ध में सुविधाएँ प्रदान करनी चाहिए। 21 वैदिक एवं बौद्ध परम्परा में इस तरह की आचार मर्यादाओं का परिपालन सामान्य शिष्टाचार के रूप में किया जाता है। वहाँ सांभोगिक-विसांभोगिक जैसी कोई व्यवस्था नहीं है।
सन्दर्भ - सूची
1. एकत्रभोजनं सम्भोगः । अहवा समं भोगो संभोगो यथोक्त विधानेनेत्यर्थः । निशीथभाष्य, 5/64 की चूर्णि ।
2. स्थानांग (ठाणं), 5/46, टिप्पण पृ. 620 3. णितिकप्पम्मि दसविहे, ठवणाकप्पे य दुविधमण्णयरे । उत्तरगुणकप्पम्मि य, जो सरिकप्पो स सम्भोगो।।
4. निशीथभाष्य, 5932
निशीथभाष्य, 2149