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मुनियों के पारस्परिक आदान-प्रदान (साम्भोगिक) सम्बन्धित... ...119 गच्छबद्ध या समुदायबद्ध साधु, जो एक साथ मंडली में बैठकर आहारादि करते हैं या परस्पर उपकरण आदि का आदान-प्रदान करते हैं, वे साम्भोगिक कहलाते हैं। आगमों में साम्भोगिक सामाचारी के स्पष्ट उल्लेख मिलते हैं। आचारचूला में कहा गया है कि किसी भिक्षु द्वारा अतिरिक्त भोजन ग्रहण कर लिया जाए और उससे उतना खाया न जा सके तो उस स्थिति में यदि वहाँ अपरिहारिक सांभोगिक-समनोज्ञ भिक्षु समीप में हों तो उन्हें बिना पूछे, बिना आमन्त्रित किए अवशिष्ट आहार परिष्ठापित नहीं करना चाहिए, अन्यथा वह मायास्थान का संस्पर्श करता है।10 इस प्रकार सांभोगिक शब्द अतिरिक्त आहार का सदुपयोग करने के सन्दर्भ में व्यवहृत हुआ है। इससे इस व्यवस्था की प्राचीनता एवं मूल्यवत्ता भी स्पष्ट होती है।
स्थानांगसूत्र में कहा गया है कि तीन कारणों से श्रमण अपने साधर्मिक सांभोगिक को विसांभोगिक करता हुआ प्रभु आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है-1. स्वयं किसी को सामाचारी के प्रतिकूल आचरण करते हुए देखकर, 2. श्रद्धा से सुनकर, 3. तीन बार अनाचार का प्रायश्चित्त देने के बाद चौथी बार प्रायश्चित्त के योग्य न होने के कारण।1 इसी प्रकार पाँच स्थानों से भी सांभोगिक को विसांभोगिक (मंडली निर्गत) करने वाला मुनि आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है।12
इसमें यह भी निर्दिष्ट है कि जो मनि आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, कुल, गण, संघ, ज्ञान, दर्शन और चारित्र- इन नौ स्थानों का प्रत्यनीक होता है, उसे विसांभोगिक कर दिया जाता है। यद्यपि संभोग के भेद-प्रभेद की चर्चा प्राप्त नहीं होती है।13
संभोग के बारह प्रकार सर्वप्रथम समवायांगसूत्र में मिलते हैं,14 जो संभोग की विधि-व्यवस्था का सम्यक स्वरूप उपदर्शित करते हैं। इसके अनन्तर भगवती में उल्लेख है कि सांभोगिक का भक्ति, बहुमान और वर्णसंज्वलन करना अर्थात उनके योग्य गौरव बढ़ाना अनाशातना दर्शन विनय है।15
बृहत्कल्पसूत्र में बारह सांभोगिक व्यवहारों का वर्णन करते हुए औत्सर्गिक विधि से साध्वियों के साथ छह प्रकार के सांभोगिक व्यवहार रखने का निर्देश दिया गया है। तदनुसार साध्वियों के साथ एक मांडलिक आहार का व्यवहार नहीं होता है तथा आगाढ़ कारण के बिना उनके साथ आहारादि का लेन-देन भी