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मुनियों के पारस्परिक आदान-प्रदान (साम्भोगिक) सम्बन्धित... ...113
गई भिक्षा अन्य किसी को नहीं दे सकते हैं । किन्तु दूसरी ओर श्वेताम्बर परम्परा के आगमों में यह भी उल्लेख है कि जो साधु संविभाग करके नहीं खाता है, वह मोक्ष का अधिकारी नहीं बन सकता है । तो यह संविभाग किसके बीच में हो, इसके बारे में सामान्यतया यही माना गया है कि ऐसा संविभाग अपने वर्ग में ही करना चाहिए। इसे शास्त्रीय भाषा में साम्भोगिक व्यवहार कहा गया है। संभोग का अर्थ
निशीथ चूर्णिकार के मतानुसार संभोग का अर्थ है - एक मण्डली में भोजन करना।1
श्वेताम्बर परम्परा में साधु-साध्वियों के स्वाध्याय, भोजन, वन्दन आदि के पारस्परिक सम्बन्ध एवं व्यवहार को 'सम्भोग' शब्द से अभिहित किया गया है। एक मण्डली में आहारादि करने वाले सांभोगिक कहलाते हैं। यह प्रतीकात्मक अर्थ है। सामान्यतः स्वाध्याय, प्रतिक्रमण आदि सभी मंडलियों में जिसका सम्बन्ध होता है, वह सांभोगिक कहलाता है | 2
निशीथभाष्य के अनुसार स्थितिकल्प, स्थापनाकल्प और उत्तरगुणकल्प-ये तीनों कल्प (आचार मर्यादाएँ ) जिनके समान होते हैं, वे मुनि सांभोगिक कहलाते हैं और जिन मुनियों में ये कल्प समान नहीं होते, वे असांभोगिक कहलाते हैं तथा जिस मुनि का सभी मंडलियों से सम्बन्ध विच्छेद कर दिया जाता है, वह विसांभोगिक कहलाता है । 3
पूर्वनिर्दिष्ट सात मंडली के नाम हैं- 1. सूत्र मंडली 2. अर्थ मंडली 3. भोजन मंडली 4. काल प्रतिलेखन मंडली 5. आवश्यक मंडली 6. स्वाध्याय मंडल और 7. संस्तारक मंडली |
सांभोगिक मुनि भी सदृशकल्पी और असदृशकल्पी ऐसे दो प्रकार के होते हैं। जिन मुनियों में दशविध स्थितकल्प, द्विविध स्थापना कल्प और उत्तरगुणकल्प समान होते हैं, वह सदृशकल्पी सांभोगिक हैं। 4
शय्यातर
यहाँ स्थितकल्पी का अर्थ - अचेलक, औद्देशिकवर्जन, पिण्डवर्जन, राजपिण्ड परिहार, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठ, प्रतिक्रमण, मासकल्प एवं पर्युषणाकल्प-इन दस प्रकार की सामाचारी में समानता रखने वाला साधु है।
स्थापनाकल्प दो प्रकार का होता है- 1. अकल्पस्थापनाकल्प-अकल्पनीय आहार, उपधि और शय्या को ग्रहण नहीं करने वाला मुनि अकल्पस्थापना