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110... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
सहयोग मिलता है। इसी प्रकार स्वयं को जितना हिस्सा प्राप्त हुआ है उसमें संतुष्ट रहने का मनोभाव पैदा होता है। साथ ही पारिवारिक क्लेश न होने पर आपसी सहयोग की भावना बढ़ती है, इससे परिवार प्रबंधन में सहायता प्राप्त हो सकती है। इसी तरह आज राष्ट्र में व्याप्त क्षेत्रवाद, प्रदेशवाद आदि के कारण जो नित नई समस्याएँ उत्पन्न होती रहती है, उससे आपसी बंधुत्व की भावना नष्ट हो रही है। अवग्रह याचना के माध्यम से इसको भी नियंत्रित किया जा सकता है तथा राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को सुधारते हुए उनका भी प्रबंधन संभव है।
उपसंहार
जिनशासन में अवग्रह अर्थात स्थान आदि की प्राप्ति हेतु अनुमति ग्रहण करने का गरिमामय स्थान है। अवग्रह के माध्यम से मुनि धर्म की सर्व आराधनाएँ सम्यक रूप से संचालित होती हैं, उच्छृंखलता के समस्त द्वार अवरुद्ध हो जाते हैं तथा अवग्रह दाता के प्रति जन मानस में अनुमोदना के भाव उत्पन्न होते हैं।
अवग्रह मर्यादा की प्राचीनता जैनागमों से प्रमाणित है । यह सामाचारी तीर्थंकर प्रणीत है, जिसका उल्लेख सर्वप्रथम आचारांग सूत्र में है।' आचारांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में 'अवग्रह प्रतिमा' नामक एक स्वतन्त्र अध्ययन भी है। उसमें दो उद्देशकों द्वारा इस विषय को भलीभाँति स्पष्ट किया गया है। तत्पश्चात यह वर्णन भगवतीसूत्र में प्राप्त होता है। 10 इसी क्रम में बृहत्कल्पभाष्य", व्यवहारभाष्य12, आचारांगचूर्णि एवं टीका में भी इसका विवेचन देखा जाता है ।
तदनन्तर मध्यकालवर्ती साहित्य के अन्तर्गत प्रवचनसारोद्धार 13 में पाँच अवग्रहों की चर्चा मात्र उपलब्ध है। इससे स्पष्ट होता है कि प्रथम आगम आचारांगसूत्र में अवग्रह का विस्तृत विवेचन है।
तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाए तो उपलब्ध ग्रन्थों में अवग्रह का स्वरूप, अवग्रह के प्रकार, अवग्रह प्रतिमा आदि को लेकर कहीं असमानता नहीं है। दूसरी ओर इसकी विस्तृत व्याख्या एक मात्र आचारचूला में होने से अन्य के साथ तुलना संभव ही नहीं है ।
यदि हम प्रचलित परम्पराओं में इस विधि को देखें तो सर्वत्र समरूपता के ही दर्शन होते हैं, क्योंकि यह आचरणा आगम सम्मत होने से इसमें सभी का