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________________ जैन मुनि के सामान्य नियम...95 शरीरासक्ति का विकास 13. दंत धावन से दंत विभूषा 14. संप्रश्न से पाप का अनुमोदन 15. संलोकन से ब्रह्मचर्य का घात 16. द्यूत से लोकापवाद 17. नालिकाद्यूत से निग्रह आदि तथा लोकापवाद 18. छत्र से लोकापवाद एवं अहंकार वृद्धि 19. चिकित्सा से सूत्र और अर्थ की हानि 20. उपानह से जीव हिंसा 21. अग्निसमारम्भ से जीववध 22. शय्यातरपिण्ड से एषणादोष 23. आसन्दी और पर्यत से शुषिर में रहे जीवों की विराधना की संभावना 24. गृहान्तर निषद्या से ब्रह्मचर्य की अगुप्ति, शंका आदि दोष 25. गात्र उवर्तन से विभूषा 26. आजीववृत्तिता से आसक्ति 27. आतुरस्मरण से दीक्षा त्याग आदि 28. मूल आदि का ग्रहण करने से वनस्पति जीवों का घात 29. सौवर्चल आदि नमक का ग्रहण से पृथ्वीकाय का विघात आदि अनेक दोष लगते हैं। उपसंहार मुनि जीवन में वैसे तो नहीं करने योग्य अनेकों कार्य हैं परन्तु दशवैकालिकसूत्र में बावन अनाचीर्णों की चर्चा है।49 यदि व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में इनके प्रभावों को देखें तो औद्देशिक, क्रीत, नित्याग्र, अभिहत आदि दोषों से दूषित आहार आदि ग्रहण नहीं करने पर निवास स्थान आदि के प्रति आसक्ति उत्पन्न नहीं होती तथा समाज में भी साधु के तप-त्याग का अच्छा प्रभाव पड़ता है। स्नान, पंखा, देह प्रलोकन, दंत प्रधावन, उपानह, छत्र, गात्र उद्वर्तन, शरीर विभूषा आदि शरीर उपयोगी वस्तुओं का त्याग करने से शरीर के प्रति ममत्व भाव न्यून होता है। उससे व्यक्ति आध्यात्मिक साधना में अधिक संलग्न हो सकता है। चौपड़, शतरंज, गृहस्थ परिचर्चा आदि करने से समय एवं बुद्धि का मात्र अपव्यय होता है। इसी प्रकार अन्य अनाचीर्णों का त्याग करने से भी जीवन में अनेक उपलब्धियाँ प्राप्त होती हैं। सूक्ष्म जीवों की रक्षा भी होती है। ऐसे शुद्ध एवं अनुकरणीय आचरण का पालनकर्ता मुनि समाज में आदर्शों की स्थापना कर सकता है। यदि प्रबन्धन की दृष्टि से अनाचीर्ण की उपयोगिता के विषय में चिन्तन किया जाए तो इनके माध्यम से आचार एवं विचार दोनों को नियन्त्रित किया जा सकता है। अनाचीर्णों का सेवन करने से जीवन में अनियमितता आती है जबकि अयोग्य आचरण का त्यागी मुनि ही सदाचार की प्रेरणा दे सकता है। आहार एवं शरीर के प्रति आसक्ति भाव कम होने से उसके लिए संभावित दुष्कृत्यों को कम
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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