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जैन मुनि के सामान्य नियम...93 परिस्थितियों को सहने का अभ्यासी हो जाता है जिससे शरीर प्रबन्धन सधता है। तृष्णा, आक्रोश, वध, अरति आदि परीषह में लोगों के द्वारा पीड़ा देने पर भी शान्त भाव रखने से आपसी समन्वय एवं सहिष्णुता में वृद्धि होती है और विद्वेष भाव उत्पन्न नहीं होते। इससे तनाव मुक्त जीवन जीने में सहायता प्राप्त होती है। इसी प्रकार अन्य परीषह भी जीवन में निर्मल भाव उत्पन्न करते हुए कषाय भावों का नाश करते हैं जिससे क्रोध प्रबन्धन, मान प्रबन्धन आदि में सहायता प्राप्त होती है।
बावन अनाचीर्ण अनाचार और अनाचीर्ण दो शब्द हैं। अनाचार का अर्थ है-विहित आचार का अतिक्रमण, अकरणीय कार्य4, उन्मार्ग गमन45 और सावध प्रवृत्ति करना।46
अनाचीर्ण का अर्थ है-अकरणीय कार्य का आचरण नहीं करना। अनाचार कारण है एवं अनाचीर्ण कार्य है। __ जैन धर्म में श्रमण और श्रमणी के लिए 52 कृत्य अनाचीर्ण के रूप में माने गये हैं अत: साधु-साध्वी वर्ग को उन कृत्यों का त्याग कर देना चाहिए। वे अनाचीर्ण निम्न हैं47
1. औद्देशिक-साधु के निमित्त बनाया गया भोजन, वस्त्र, मकान आदि ग्रहण करना 2. क्रीतकृत-मुनि के निमित्त खरीदी हुई वस्तु ग्रहण करना 3. नित्याग्र-प्रतिदिन निमन्त्रित करके दिया जाने वाला आहार ग्रहण करना 4. अभिहृत-साधु के निवास स्थान पर गृहस्थ के द्वारा लाकर दिया गया आहार ग्रहण करना 5. रात्रि भक्त-रात्रि भोजन करना 6. स्नान-स्नान करना 7. गंधइत्र, चन्दन आदि सुवासित पदार्थों का उपयोग करना 8. माल्य-पुष्पों की माला धारण करना 9. वीजन-पंखे आदि से हवा लेना 10. सन्निधि-खाद्य वस्तु का संग्रह करना 11. गृहि अमत्र-गृहस्थ के पात्र में भोजन करना 12. राजपिण्डराजा के घर से भिक्षा लेना 13. किमिच्छक-'कौन क्या चाहता है?' इस प्रकार पूछकर दिया जाने वाला दानशाला आदि का आहार ग्रहण करना 14. संबाधन-शरीर पुष्टि हेतु तेल मर्दन करवाना 15. दंत प्रधावन-दाँतों को साफ करना 16. संप्रश्न-गृहस्थ के कुशल पूछना या उनकी पारिवारिक बातें पूछना 17. देह प्रलोकन-दर्पण आदि में अपना शरीर देखना 18. अष्टापदशतरंज खेलना 19. नालिका-चौपड़ या पासा खेलना 20. छत्र-वर्षा या गर्मी