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जैन मुनि के सामान्य नियम...91 22. दर्शन परीषह-अन्य सम्प्रदायों का आडम्बर देखकर या अन्य दार्शनिकों की महिमा देखकर जिनमार्ग से विचलित नहीं होते हुए शुद्ध मार्ग पर स्थिर रहना।
उल्लेखनीय है कि बाईस परीषह ज्ञानावरणीय, मोहनीय, वेदनीय एवं अन्तराय इन चार कर्मों के विपाकोदय से उपस्थित होते हैं तथा एक साथ उत्कृष्टतः बीस परीषह और जघन्यतः एक परीषह हो सकता है। उपसंहार
__चारित्र धर्म में सुदृढ़ रहने एवं पूर्वबद्ध कर्मों का क्षरण करने के लिए उपस्थित कष्टों को समभाव पूर्वक सहन करना परीषह कहलाता है। जैन मुनि द्वारा पालनीय यह आचार धर्म आगम कथित है। इन 22 परीषहों की चर्चा सर्वप्रथम समवायांगसूत्र34 में प्राप्त होती है। इसके अनन्तर मूल पाठों के रूप में यह विवेचन उत्तराध्ययनसूत्र35, प्रवचनसारोद्धार36, तत्त्वार्थसूत्र37 में उपलब्ध होता है।
उत्तराध्ययनसूत्र में परीषह नामक एक स्वतन्त्र अध्याय है। प्रवचनसारोद्धार वृत्ति में भी यह वर्णन विस्तार के साथ प्राप्त होता है। नवतत्त्व प्रकरण आदि ग्रन्थों में भी इसका मौलिक स्वरूप देखा जाता है।38
यदि तुलनात्मक दृष्टि से विचार किया जाए तो उक्त ग्रन्थों में संख्या की दृष्टि से समानता होने पर भी क्रम की दृष्टि से क्वचित अन्तर है। समवायांग में परीषह के बाईस भेद इस प्रकार मिलते हैं
1. क्षुधा 2. पिपासा 3. शीत 4. उष्ण 5. दंशक 6. अचेलक 7. अरति 8. स्त्री 9. चर्या 10. निषद्या 11. शय्या 12. आक्रोश 13. वध 14. याचना 15. अलाभ 16. रोग 17. तृण स्पर्श 18. मल 19. सत्कार 20. ज्ञान 21. दर्शन 22. अज्ञान।
उत्तराध्ययनसूत्र में 19 परीषहों के नाम एवं क्रम वही हैं, किन्तु 20,21 और 22 वें नाम में अन्तर है। उसमें 20वाँ प्रज्ञा, 21वाँ अज्ञान और 22वाँ दर्शन है। ___नवांगी टीकाकार आचार्य अभयदेव ने 'अज्ञान' परीषह का क्वचित श्रुति के रूप में वर्णन किया है।39 आचार्य उमास्वाति ने 'अचेल' परीषह के स्थान पर 'नाग्न्य' परीषह लिखा है और 'दर्शन' परीषह के स्थान पर 'अदर्शन' परीषह