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जैन मुनि के सामान्य नियम...89 1. स्वीकृत मार्ग से च्युत न होने के लिए एवं 2. कर्मों को क्षीण करने के लिए।31
जैन परम्परा में 22 परीषह माने गये हैं उनमें दर्शन और प्रज्ञा ये दो परीषह मार्ग से च्युत न होने में सहायक होते हैं तथा शेष बीस परीषह निर्जरा के लिए होते हैं।32 मनि को कष्ट सहिष्ण होना आवश्यक है। यदि वह कष्ट सहिष्णुता का अभ्यासी नहीं हो तो संयम पथ से कभी भी विचलित हो सकता है। इसलिए श्रमण के लिए निम्नोक्त बाईस स्थितियों में सहनशील रहने का उपदेश दिया गया है।33
1. क्षुधा परीषह-भूख से अत्यन्त पीड़ित होने पर भी नियम विरुद्ध आहार ग्रहण नहीं करना अपितु समभावपूर्वक भूख वेदना को सहन करना, क्षुधा परीषह है।
2. तृषा परीषह-प्यास से व्याकुल होने पर भी सचित्त जल ग्रहण नहीं करते हुए प्यास की वेदना सहन करना, तृषा परीषह है।
3. शीत परीषह-वस्त्र अल्प होने के कारण शीत निवारण न हो तो भी अग्नि से तापना नहीं और नियम विरुद्ध वस्त्रों को ग्रहण कर शीत निवारण नहीं करना, शीत परीषह है।
4. उष्ण परीषह-ग्रीष्म ऋतु में गर्मी की अधिकता के कारण चित्त में बेचैनी हो रही हो, तब भी स्नान या पंखे आदि का प्रयोग नहीं करते हुए उसे शान्त भाव से सहन करना, उष्ण परीषह है।
5. दंश मशक परीषह-डांस, मच्छर आदि के काटने पर क्रोध नहीं करना और न ही उन्हें त्रास देना दंशमशक परीषह है।
6. अचेल परीषह-वस्त्र अल्प हो या वस्त्र फट गये हों तो चिन्ता नहीं करना और न ही मुनि मर्यादा के विरुद्ध वस्त्र ग्रहण करना। ___7. अरति परीषह-प्रतिकूल परिस्थिति आने पर मुनि जीवन में सुखसुविधाओं का अभाव है इस प्रकार का विचार नहीं करना।
8. स्त्री परीषह-स्त्री संग को आसक्ति, बन्धन और पतन का कारण जानकर स्त्री-संसर्ग की इच्छा नहीं करना व उनसे दूर रहना।
9. चर्या परीषह-संयम जीवन का निर्वाह करने हेतु चातुर्मास को छोड़कर सदैव भ्रमण करते रहना और पदयात्रा में आने वाले कष्टों को समभाव पूर्वक सहन करना।