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जैन मुनि के सामान्य नियम...87
संभावना रहती है एवं निद्रा न आने से मानसिक शान्ति भी भंग होती है।
17. झंझाकरण-संघ में मतभेद उत्पन्न करने वाले वचन बोलना।
हानि-समाज में फूट डालने वाला सभी के लिए असमाधि उत्पन्न करता है।
18. कलहकरण-आक्रोशादि वचन का प्रयोग कर कलह उत्पन्न करना। हानि-इससे संयम का अहित होता है। 19. सूर्यप्रमाण भोजित्व-दिन भर कुछ न कुछ खाते-पीते रहना।।
हानि-इससे शारीरिक अस्वस्थता और रसास्वादन की आसक्ति बढ़ जाती है।
20. एषणाऽसमितत्व-एषणा समिति का ध्यान नहीं रखना।
हानि-अनैषणीय आहार लेने से चारित्र दूषित तथा जीवों की विराधना होती है। उपसंहार
जिन प्रवृत्तियों से स्वयं या दूसरे के इहलोक, परलोक या उभयलोक में असमाधि होती हो उन्हें असमाधि स्थान कहा गया है।24 जैन भिक्षु के लिए उक्त बीस स्थान सर्वथा वर्जित कहे गये हैं क्योंकि इन बीस कार्यों के आचरण से स्वयं के और दूसरे जीवों के प्रति असमाधि भाव उत्पन्न होता है तथा साधक की आत्मा दूषित एवं चारित्र मलिन होता है। यह आगम विहित आचार संहिता है
__इसका मूल स्वरूप समवायांगसूत्र,25 दशाश्रुतस्कन्धसूत्र,26 उत्तराध्ययनसूत्र,27 श्रमण प्रतिक्रमणसूत्र28 में प्राप्त होता है। दशाश्रुतस्कन्ध की नियुक्ति-चूर्णि में इसकी विस्तृत व्याख्या की गई है। . तुलनात्मक रूप से कुछ नामों में मतभेद देखा जाता है।
यहाँ यह प्रश्न भी उपस्थित होता है कि असमाधिस्थान बीस ही क्यों? दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्तिकार29 ने इसका समाधान करते हुए कहा है कि असमाधि के ये बीस स्थान केवल निदर्शन मात्र हैं। इनके आधार पर तत्सदृश अनेक स्थान हो सकते हैं जैसे द्रुतगति से चलना असमाधि स्थान है वैसे ही जल्दीजल्दी बोलना, त्वरता से प्रतिलेखना करना, जल्दबाजी में खाना आदि भी असमाधि स्थान हैं। जितने असंयम के स्थान हैं, उतने ही असमाधि के स्थान हैं।