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सम्पादकीय
श्रमण संस्कृति आचार प्रधान संस्कृति है। 'आचार परमो धर्म:' उक्ति से ही इसकी मुख्यता प्रमाणित हो जाती है। यद्यपि श्रमण धर्म निवृत्तिमूलक धर्म कहलाता है। किंतु यहाँ निवृत्ति का अभिप्राय शून्यता नहीं है। निवृत्ति का तात्पर्य है असदाचार से निवृत्ति एवं सदाचार में प्रवृत्ति। इसी सदाचार वृत्ति के आधार पर श्रमणाचार एवं श्रावकाचार का निरूपण हुआ है। . जीवन निर्वाह और शारीरिक आवश्यकताओं के कारण जो दैनिक क्रियाएँ मुनि द्वारा आचरित की जाती है उसे श्रमणाचार कहते हैं। इसके अन्तर्गत श्रमण के समस्त क्रिया पक्ष समाहित हो जाते हैं।
भारतीय संस्कृति में वैदिक परम्परा सुख-समृद्धि सम्पन्न भौतिक एवं सामाजिक जीवन का प्रतिनिधित्व करती है वहीं श्रमण संस्कृति त्याग-वैराग्य सम्पन्न आध्यात्मिक जीवन शैली का प्रतिपादन करती है। शास्त्रानुसार समस्त पापकारी प्रवृत्तियों से बचना श्रमण जीवन का बाह्य पक्ष है तथा समस्त राग-द्वेषात्मक वृत्तियों से ऊपर उठना श्रमण का आभ्यंतर पक्ष है। श्रमण संस्कृति का मूल आधार है श्रमण जीवन। एक श्रावक जब अपने व्रती जीवन में निरंतर प्रगति करता है तब वह प्रतिपल यही चिन्तन करता है कि कब वह दिन आएगा जिस दिन मैं श्रमण धर्म को ग्रहण करूंगा? क्योंकि निर्वाण प्राप्ति के लिए संयम ग्रहण कर श्रमण बनना आवश्यक है। श्रमण साधना के अनुकूल वातावरण की प्राप्ति के लिए गृहवास का त्याग एवं श्रमण वेश का स्वीकार जरूरी माना गया है।
श्रमण अनेक गुणों का पुंज होता है अत: उसके लिए अनेक आवश्यक योग्यताएँ मानी गई हैं। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार श्रमण 27 मूल गुणों से एवं दिगम्बर परम्परा के अनुसार 28 मूल गुणों से युक्त होना चाहिए। इसी के साथ उसके लिए आचरणीय 70 मूल गुण भी माने गए हैं। इसके अंतर्गत पाँच महाव्रत, दस श्रमण धर्म, सतरह प्रकार का संयम, दस प्रकार का वैयावृत्य, नौ ब्रह्मचर्यगुप्ति, रत्नत्रय, बारह प्रकार का तप एवं क्रोधादि