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18...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता
दंसण वय सामाइय, पोसह सचित्त राइभत्ते य।
बंभारंभ परिग्गह, अणुमणु मुद्दिट्ट देसविरहेदे।। फिर गुरु इस गाथा की व्याख्या कर गुर्वावली पढ़ें। उसके बाद मन्त्रोच्चारण पूर्वक उसे संयम के उपकरण प्रदान करें। पिच्छिउपकरण दान मन्त्र ___ ॐ णमो अरहंताणं (आर्य-ऐलक) क्षुल्लके वा षट्जीवनिकाय रक्षणाय मार्दवादिगुणोपेत मिदं पिच्छोपकरणं गृहाण गृहाण इति। ज्ञानोपकरण दान मन्त्र
ॐ णमो अरहंताणं मतिश्रुतावधिमनः पर्ययकेवलज्ञानाय द्वादशांगश्रुताय नमः। भो अन्तेवासिन्। इदं ज्ञानोपकरणं गृहाण गृहाणेति। शौचोपकरण दान मन्त्र
कमण्डलु को बाएं हाथ से उठाकर निम्न मन्त्र बोलते हुए प्रदान करें
ॐ णमो अरहंताणं रत्नत्रय पवित्रकरणाङ्गाय बाह्याभ्यन्तरमलशुद्धाय नमः। भो अन्तेवासिन्। इदं शौचोपकरणं गृहाण गृहाणेति।। तुलनात्मक विवेचन
जब हम पूर्व विवेचित विधि स्वरूप का तुलनात्मक पहलू से विचार करते हैं तो उनमें परस्पर आंशिक समानताएँ एवं आंशिक असमानताएँ निम्न प्रकार से परिलक्षित होती हैं
1. श्वेताम्बर-परम्परा में क्षुल्लक नियत अवधि के लिए सामायिक एवं पंचमहाव्रत सहित रात्रिभोजनविरमण व्रत की प्रतिज्ञा दो करण एवं तीन योग से स्वीकार करता है जबकि दिगम्बर-परम्परा में उसे ग्यारह प्रतिमारूप व्रत दण्डक उच्चरित करवाया जाता है, अतः मूल से व्रत इच्छुक गृहस्थ ग्यारहवीं प्रतिमा धारण करता है।
2. श्वेताम्बर मान्यतानुसार क्षुल्लक गृहीत व्रत का तीन वर्ष तक परिपालन करता है। आचार्य वर्धमानसूरि ने क्षुल्लकदीक्षा का काल तीन वर्ष बतलाया है जबकि दिगम्बर-परम्परा में क्षुल्लक दीक्षा की कोई अवधि निश्चित नहीं की जा सकती है, वह यावज्जीवन होती है। यद्यपि ऐलक या मुनि दीक्षा ग्रहण है, किन्तु नियम से वह पुन: गृहस्थ जीवन को स्वीकार नहीं कर सकता।