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वन्दनार्पण
मैं एक अनगढ़ पत्थर थी तुमने मेरा उद्धार किया । ज्ञान हथोड़ा संयम छेनी से
मुझको एक आकार दिया ||
अपने हाथ बिछा धरती पर मुश्किल घड़ियों में आधार दिया । जीवन के प्रत्येक मोड़ पर
अविचल रहने का सद्द्बोध दिया । ।
मोह माया बंधन से मुक्त कर
उन्मुक्त गगन का आस्वाद दिया । सद्ज्ञानामृत का अभिसिञ्चन कर
मुक्ति रमणी का वरदान दिया ।।
स्मृति लहरे उठती हर पल
मुझ मन आंगन गीला करती । तेरा तुझको अर्पण करके
अश्रु वीणा चरणे धरती ।।
ऐसी आत्मानन्दी, सजग प्रहरी, शास्त्र मर्मज्ञा, कलिकाल में चतुर्थ आरे की प्रतिमूर्ति प्रवर्त्तिनी महोदया पूज्य गुरुवर्य्या सज्जन श्रीजी म. सा. के
अनन्त आस्थामय पाणि युग्मों में सर्वात्मना समर्पित ।